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भगवान श्रीकृष्ण भक्ति योग के महत्व को बताते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति निस्वार्थ भाव से, बिना किसी स्वार्थ के, सिर्फ मुझमें अपनी भक्ति रखता है, वह मुझे सबसे प्रिय है। जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति दया, करुणा और अहिंसा का भाव रखता है, जो अहंकार, मोह, क्रोध और लोभ से मुक्त रहता है, और जो हर परिस्थिति में स्थिर और संतुलित रहता है, वह सच्चे भक्ति योगी हैं। इस प्रकार, यह अध्याय हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति और समर्पण से ही हम भगवान के प्रिय बन सकते हैं और जीवन में शांति और संतोष प्राप्त कर सकते हैं।

श्लोक

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ताये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तंतेषां के योगवित्तमाः।।
श्री भगवानुवाच
मय्यावेश्य मनोये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धयापरयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।
येत्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यंच कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।

संनियम्येन्द्रियग्रामंसर्वत्र समबुद्धयः।
तेप्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हिगतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।
ये तु सर्वाणिकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैवयोगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
तेषामहंसमुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामिनचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।

मय्येव मनआधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसिमय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।
अथ चित्तंसमाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेनततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसिमत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपिकर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।
अथैतदप्यशक्तोऽसिकर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागंततः कुरु यतात्मवान्।।

श्रेयो हिज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।
अद्वेष्टासर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममोनिरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।

सन्तुष्टः सततंयोगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तः स मे प्रियः।।
यस्मान्नोद्विजतेलोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तोयः स च मे प्रियः।।
अनपेक्षःशुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागीयो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
यो न हृष्यति नद्वेष्टि न शोचति न काङ् क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागीभक्तिमान्यरू स मे प्रियरू ।।
समरू शत्रौ चमित्रे च तथा मानापमानयोरू ।
शीतोष्णसुखदुरूखेषुसमरू सङ्गविवर्जितरू ।।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनीसन्तुष्टो येन केनचित् द्य ।
अनिकेतरूस्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नररू ।।
ये तुधर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधानामत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।
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