अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ताये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तंतेषां के योगवित्तमाः।।
एवं सततयुक्ताये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तंतेषां के योगवित्तमाः।।
अर्थ अर्जुन बोले - जो भक्त इस प्रकार निरंतर आपमें लगे रहकर आप (कृष्णरूप) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण निराकार की उपासना करते हैं, उन दोनों में से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ? व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 1
अर्जुन कह रहे हैं कि आपने अपना निराकार परम विश्वरूप दिखाया और एक आपका साकार रूप है, आपके दो रूप हुए एक निराकार दूसरा साकार अर्थात जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब आप अपने साकार रूप को रचते हो जैसे कभी राम बनके कभी श्याम बनकर आप अपनी लीला दिखाते रहते हो।
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है कि दो तरह के साधक यानि दो तरह के खोजी होते हैं एक तो वह साधक हैं कि आप निराकार हो आपका कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई आकृति नहीं, आपको ना देखा जा सकता है, ना छुआ जा सकता है आप विराट असीम निर्गुण शक्ति रूप है, ऐसे जानने वाले साधक है। और एक वह भी साधक है जो आपको सगुण रूप से भजते हैं आपका अनन्य प्रेम से भजन करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है।
अर्जुन यह पूछना चाह रहे हैं मैं किस मार्ग पर चलूँ मैं आपको निराकार की तरफ से भजूँ या साकार की तरफ से, यानि मैं आपकी भक्ति के मार्ग में दीवाना हो जाऊँ, पागल हो जाऊँ या निराकार के ध्यान में मौन हो जाऊँ, शून्य हो जाऊँ, क्योंकि जो निराकार की तरफ जाता है उसे निर्विचार होना पड़ता है। सब विचार आकार वाले हैं, जहाँ तक विचार रहता है वहाँ तक आकार रहता है। सभी विचार सगुण हैं, इसलिए विचार से निर्गुण तक नहीं पहुँचा जा सकता। जो भी अनुभव करना हो मनुष्य को पहले वैसा ही बनना पड़ता है। जब तक शून्य आप ना हो जाएँ तब तक आपको निराकार का अनुभव नहीं होगा और जब तक प्रेम (श्रद्धा) ना हो जाए तब तक साकार का अनुभव नहीं होता। जिस भी मार्ग पर हमें चलना है पहले हमें वैसे ही होना पड़ता है।
निराकार की साधना में तुम्हारे भीतर रत्ती भर भी जगह भरी ना रहे सब विचार खाली हो जाए, जिस दिन तुम पूर्ण विचार शून्य हो जाओगे तब निराकार का आत्मबोध तुम्हें हो जाएगा।
भक्ति के मार्ग में तुम्हारे भीतर जरा-सी भी जगह खाली ना बचे तुम इतने भर जाओ ईश्वर के प्रेम से कि तुम ना बचो सिर्फ वही रह जाए तुम्हारे विचार तुम्हारे भाव तुम्हारी साँसे तुम्हारी धड़कन सब उसी की हो जाए यही अनन्य भक्ति होती है।
अब आप मेरी इस शंका को दूर करें कि मैं आपकी सगुण रूप से भक्ति करूँ या निर्गुण रूप से, इन दोनों में से उत्तम योगवेता कौन है?
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है कि दो तरह के साधक यानि दो तरह के खोजी होते हैं एक तो वह साधक हैं कि आप निराकार हो आपका कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई आकृति नहीं, आपको ना देखा जा सकता है, ना छुआ जा सकता है आप विराट असीम निर्गुण शक्ति रूप है, ऐसे जानने वाले साधक है। और एक वह भी साधक है जो आपको सगुण रूप से भजते हैं आपका अनन्य प्रेम से भजन करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है।
अर्जुन यह पूछना चाह रहे हैं मैं किस मार्ग पर चलूँ मैं आपको निराकार की तरफ से भजूँ या साकार की तरफ से, यानि मैं आपकी भक्ति के मार्ग में दीवाना हो जाऊँ, पागल हो जाऊँ या निराकार के ध्यान में मौन हो जाऊँ, शून्य हो जाऊँ, क्योंकि जो निराकार की तरफ जाता है उसे निर्विचार होना पड़ता है। सब विचार आकार वाले हैं, जहाँ तक विचार रहता है वहाँ तक आकार रहता है। सभी विचार सगुण हैं, इसलिए विचार से निर्गुण तक नहीं पहुँचा जा सकता। जो भी अनुभव करना हो मनुष्य को पहले वैसा ही बनना पड़ता है। जब तक शून्य आप ना हो जाएँ तब तक आपको निराकार का अनुभव नहीं होगा और जब तक प्रेम (श्रद्धा) ना हो जाए तब तक साकार का अनुभव नहीं होता। जिस भी मार्ग पर हमें चलना है पहले हमें वैसे ही होना पड़ता है।
निराकार की साधना में तुम्हारे भीतर रत्ती भर भी जगह भरी ना रहे सब विचार खाली हो जाए, जिस दिन तुम पूर्ण विचार शून्य हो जाओगे तब निराकार का आत्मबोध तुम्हें हो जाएगा।
भक्ति के मार्ग में तुम्हारे भीतर जरा-सी भी जगह खाली ना बचे तुम इतने भर जाओ ईश्वर के प्रेम से कि तुम ना बचो सिर्फ वही रह जाए तुम्हारे विचार तुम्हारे भाव तुम्हारी साँसे तुम्हारी धड़कन सब उसी की हो जाए यही अनन्य भक्ति होती है।
अब आप मेरी इस शंका को दूर करें कि मैं आपकी सगुण रूप से भक्ति करूँ या निर्गुण रूप से, इन दोनों में से उत्तम योगवेता कौन है?