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यस्मान्नोद्विजतेलोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तोयः स च मे प्रियः।।
अर्थ जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता और स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, ईर्ष्या, भय, उद्वेग से मुक्त है, वह मुझे प्रिय है। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 15 भक्त सब प्राणियों और सर्वत्र (कण-कण में) अपने परम प्रभु को ही देखता है, सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान की लीला हो रही है। ऐसे जानने वाले भक्त से कौन उद्वेग हो सकता है। परम प्रभु के भक्त सब प्राणियों का भला करते हैं। असुरी प्रवृति के लोग भी जो लोगों से द्वेष रखने वाले होते हैं वह भी प्रभु भक्त के दर्शन करके उनसे वार्तालाप करके असुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो जाते हैं। परम प्रभु का भक्त बनने पर भक्त के शत्रु मित्र होते ही नहीं, भक्त का एक परमात्मा ही होता है सबसे प्रिय। भक्त फिर सबमें परमात्मा का ही वास देखते हैं। ना भक्त से कोई द्वेष भाव रखता ना भक्त किसी प्राणी से द्वेष भाव रखते, परमात्मा के भक्त भय और उद्वेग की हलचल से दूर हो जाते हैं। भगवान कहते हैं कि ऐसे भक्त मुझे प्रिय है। भक्त की दृष्टि में एक परम के सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय करें ?
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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