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ये तुधर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधानामत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।
अर्थ परन्तु जो मुझ में श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा है वैसा ही भलीभांति सेवन करते हैं वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 20 जिस क्षण आप इतने शांत और निष्काम होते हैं, बस सिर्फ आप होते हैं, इतनी भी वासना मन में नहीं रहती कि परमात्मा को पाना है, उसी क्षण आप पाते हो कि परमात्मा को पा लिया। भक्ति का अर्थ है सत्य को बुद्धि से नहीं हृदय से पाया जाता है, विचार से नहीं भाव से पाया जाता है, चिंतन से नहीं श्रद्धा से पाया जाता है।
भक्त की शांत निष्काम भाव दशा चाहिए, उसको पाने के लिए उसको भी भूल जाना जरूरी है, जब तक पाने की इच्छा है तब तक वासना ही है, अंतिम क्षण में सब वासना भूल जाना जरूरी है आत्मा में ही विलीन हो जाना होता है बस उसी क्षण घटना घट जाती है और उस अमृत की प्राप्ति हो जाती है।
अर्जुन को आगे भगवान ने कहा, मुझमें श्रद्धा रखने वाले मेरे शरण में हुए भक्त इस ऊपर कहे धर्ममय अमृत का जैसा कहा है वैसा ही आचरण करते हैं। वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है और देह त्याग के बाद वह भक्त मुझको ही प्राप्त होते है।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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