अनपेक्षःशुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागीयो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
सर्वारम्भपरित्यागीयो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
अर्थ जो अपेक्षा से रहित, मन से पवित्र, सामर्थ्यवान, उदासहीन से रहित और सभी आरम्भों का त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 16
अपेक्षा से रहित: जिसने वासना की व्यर्थता को समझ लिया और अब कोई माँग नहीं करता कि मुझे यह चाहिए जो मिल गया, जितना मिल जाता है वह कहता है बस यही मेरी चाहत थी, जो नहीं मिलता उसकी इच्छा, चिंता, अपेक्षा नहीं करता। आपने कभी ख्याल किया है जो हमें नहीं मिलता उसका ही ख्याल हमें रहता है जो मिल जाता है उसे हम भूल जाते हैं। जिस गाड़ी को आप खरीदना चाहते हो तभी तक वह आपके पास है, जिस दिन आप खरीद कर उसमें बैठ जाओगे वह गाड़ी आपके पास नहीं रहेगी, क्योंकि मिलते ही आप उसको भूल जाओगे, अब दूसरों के पास है गाड़ियां वह दिखाई पड़ने लग जाएगी। घर, गाड़ी, धन जो भी है उसको भूल जाते हैं, जो नहीं है उसकी इच्छा बनी रहती है, अपेक्षा का अर्थ है जो नहीं है उसकी खोज, अपेक्षा रहित का अर्थ है जो है उसमें तृप्त।
बाहर भीतर से पवित्र: बाहर भीतर से पवित्र वही होता है जो बाहर भीतर एक सा हो, भीतर कुछ और हो बाहर कुछ और हो वह पवित्र नहीं होता है, पवित्र का अर्थ होता है जैसे आप कहते हो पानी शुद्ध है जब पानी में पानी के सिवा और कुछ नहीं होता तब आप कहते हैं पानी शुद्ध पवित्र है, पानी में कुछ और मिल जाए तो वह पीने के लायक नहीं रहता यानि अशुद्ध हो जाता है। ऐसे ही आप बाहर भीतर दो तरह के होते हो तब अपवित्र हो जाते हो जैसे भीतर हो वैसे ही बाहर हो तो आप पवित्र हो जाते हो क्योंकि बाहर भीतर एक जैसा होते ही द्वंद्व मिट जाता है द्वंद्व मिटते ही खुद के स्वरूप से मिलन हो जाता है वही पवित्र होता है।
आरम्भों का त्यागी: जहाँ वासना शुरू होती है उसको वहीं छोड़ना आसान है बीच में या अंत में उसको छोड़ना कठिन है, आप कहीं रस्ते से जा रहे है आपको घर, गाड़ी, स्त्री कुछ भी अच्छा लगा तब यह ना सोच लेना कि मैं सौंदर्य का पारखी हूँ, वो विचारों का आरंभ है और आरंभ के विचार ही कुछ समय बाद वासना बन जाएँगे और माँग करेंगे कि यह मेरा कब होगा, विचार आरंभ है अगर आरंभ में चेत गए तो वासना पकड़ में आ जाएगी, इसलिए कृष्ण कहते हैं आरंभों का त्यागी जहाँ से उपद्रव शुरू होता है उसको पहचान कर वहीं त्याग कर देने वाला आरंभों का त्यागी होता है अगर वहीं त्याग नहीं हुआ तो मध्य में या अंत में त्याग नहीं हो सकता, जब तक तीर प्रत्यंचा पर है उसको रोका जा सकता है जब हाथ से छूट जाता है तब नहीं रोका जा सकता। आरंभ का अर्थ है अभी तक तीर आपके हाथ में हैं चाहे तो आप उसको वहीं रोक सकते हैं, सब आरंभों का त्यागी परमात्मा को प्रिय है।
बाहर भीतर से पवित्र: बाहर भीतर से पवित्र वही होता है जो बाहर भीतर एक सा हो, भीतर कुछ और हो बाहर कुछ और हो वह पवित्र नहीं होता है, पवित्र का अर्थ होता है जैसे आप कहते हो पानी शुद्ध है जब पानी में पानी के सिवा और कुछ नहीं होता तब आप कहते हैं पानी शुद्ध पवित्र है, पानी में कुछ और मिल जाए तो वह पीने के लायक नहीं रहता यानि अशुद्ध हो जाता है। ऐसे ही आप बाहर भीतर दो तरह के होते हो तब अपवित्र हो जाते हो जैसे भीतर हो वैसे ही बाहर हो तो आप पवित्र हो जाते हो क्योंकि बाहर भीतर एक जैसा होते ही द्वंद्व मिट जाता है द्वंद्व मिटते ही खुद के स्वरूप से मिलन हो जाता है वही पवित्र होता है।
आरम्भों का त्यागी: जहाँ वासना शुरू होती है उसको वहीं छोड़ना आसान है बीच में या अंत में उसको छोड़ना कठिन है, आप कहीं रस्ते से जा रहे है आपको घर, गाड़ी, स्त्री कुछ भी अच्छा लगा तब यह ना सोच लेना कि मैं सौंदर्य का पारखी हूँ, वो विचारों का आरंभ है और आरंभ के विचार ही कुछ समय बाद वासना बन जाएँगे और माँग करेंगे कि यह मेरा कब होगा, विचार आरंभ है अगर आरंभ में चेत गए तो वासना पकड़ में आ जाएगी, इसलिए कृष्ण कहते हैं आरंभों का त्यागी जहाँ से उपद्रव शुरू होता है उसको पहचान कर वहीं त्याग कर देने वाला आरंभों का त्यागी होता है अगर वहीं त्याग नहीं हुआ तो मध्य में या अंत में त्याग नहीं हो सकता, जब तक तीर प्रत्यंचा पर है उसको रोका जा सकता है जब हाथ से छूट जाता है तब नहीं रोका जा सकता। आरंभ का अर्थ है अभी तक तीर आपके हाथ में हैं चाहे तो आप उसको वहीं रोक सकते हैं, सब आरंभों का त्यागी परमात्मा को प्रिय है।