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अथ चित्तंसमाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेनततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसिमत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपिकर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।
अर्थ अगर तू मन को मुझमें अचल भाव से स्थिर करने में अपने को समर्थ नहीं मानता है, तो हे धनंजय ! तब अभ्यास योग के द्वारा तू मेरी प्राप्ति की इच्छा कर। अगर तू अभ्यास योग में भी अपने को असमर्थ पाता है तो मेरे लिए कर्म करने के परायण हो जा। मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जाएगा। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 9-10 कृष्ण कहते हैं कि तेरे को लगे कि मैं एकदम से मन को कैसे लगा दूँ, एकदम से प्रभु के भाव में कैसे जाऊँ, एकदम से कैसे लीन होकर डूब जाऊँ ऐसे विचार उठे तो अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर।
दो तरह के लोग होते हैं, एक तो वह कि जिनको कहते हैं कि जाओ भक्ति में डूब जाओ वह डूब जाते हैं, छोटे बच्चे की तरह बच्चों को कहो जाओ नाचो और नाच में डूब जाओ। कहो कि खेलो और खेल में डूब जाओ और बच्चे डूब जाते हैं, बच्चे कभी नहीं पूछते कि खेल में कैसे डूबें क्योंकि बच्चों को खेल में डूबना आता है।
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू मुझ में डूब सकता है तो डूब जा फिर कोई बात करने की जरूरत नहीं। कृष्ण को पता है कि अर्जुन पढ़ा लिखा क्षत्रिय है उस समय का बुद्धिमान व्यक्ति है, कृष्ण को पता है यह डूब नहीं सकेगा तब वह कहते हैं कि तू सीधा डूब ना सके तो अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर, भक्त बिना योग के श्रद्धा से पहुँच जाता हैै जो भक्त नहीं होता उसको योग से जाना पड़ता है, योग अर्थात्् चित्त को एकाग्र करना सारा ध्यान एक जगह करना चाहे नाम जप करो चाहे एक बिंदु बनाओ उस पर ध्यान एकाग्र करो या आँखें बंद करके शून्य होने का अभ्यास करो।
आँखों को खोलने से बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैं और आँख बंद करने से भीतर के विचार दिखाई पड़ते हैं, तो आधी आँख खोलो बस नाक ही दिखाई पड़े उस नाक पर ही अपने को थिर कर लो।
अगर भक्त नहीं बन सकते तो आपको अभ्यास की जरूरत है यानि प्रभु में मन नहीं लगा सकते तो सीधे नहीं डूब सकते तो अभ्यास रूप-योग तो एक तकनीकी है।
अगर सीधा प्रभु में मन को लगा सकता है तो इससे बेहतर कुछ नहीं अगर सीधा नहीं डूब सकता तो ध्यान का अभ्यास कर।
फिर श्री कृष्ण कहते हैं कि अगर अभ्यास में भी असमर्थ है यह भी हो सकता है कि तू कहे बड़ा कठिन है ध्यान लगाना मन को रोकना ध्यान लगाते ही नींद आती है, तो फिर एक काम कर अगर भक्ति योग या ज्ञान योग में समर्थ नहीं है तो कर्म योग में लग जा यानि तू इतना ही कर कि सारे कर्मों को मुझ में समर्पित कर दे, ऐसा मान कि तेरे भीतर मैं ही कर रहा हूँ, तू तो एक उपकरण मात्र बन जा अच्छा बुरा मेरे प्रति समर्पित कर दे।
यह तीन मार्ग है परमात्मा प्राप्ति के लिए
सबसे श्रेष्ठ है प्रेम यानि श्रद्धा भक्ति, अगर यह न हो सके तो दूसरा मार्ग है योग का अभ्यास करना और योग में भी असफल हो जाए तो तीसरे का प्रयोग करना यानि कर्म योग को चुनना क्योंकि वह मजबूरी है जब कुछ भी ना बने तो आखरी है कर्म योग। एक बात ध्यान रखना कभी अपने को धोखा मत देना, जैसे कुछ लोग भोग वासना के लिए धंधा करते हैं नौकरी करते हैं और कहते हैं कि हम तो कर्म योग में लगे हैं। कोई भी कर्म करना कर्म योग नहीं वह तो सिर्फ कर्म ही है वासना पूर्ति के लिए। कर्म योग का मतलब है काम आप नहीं कर रहे परमात्मा ही कर रहा है, जब सफल हो तो यह मत कहना मैं सफल हो गया तब कहना यह सफलता मेरी नहीं परमात्मा की है, और जिस दिन आप दिवालिया हो जाओ तब कहना कि मैं नहीं परमात्मा ही दिवालिया हुए हैं अपने को पूरा हटा लेना और सारा कर्म उस पर छोड़ देना ही कर्म योग है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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