समरू शत्रौ चमित्रे च तथा मानापमानयोरू ।
शीतोष्णसुखदुरूखेषुसमरू सङ्गविवर्जितरू ।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनीसन्तुष्टो येन केनचित् द्य ।
अनिकेतरूस्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नररू ।।
शीतोष्णसुखदुरूखेषुसमरू सङ्गविवर्जितरू ।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनीसन्तुष्टो येन केनचित् द्य ।
अनिकेतरूस्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नररू ।।
अर्थ जो शत्रु और मित्र में तथा मन अपमान में सम है और गर्मी-सर्दी तथा सुख-दुःख में सम है एवम् आसक्ति रहित है और जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला है। मननशील जिस किसी प्रकार से भी सन्तुष्ट है रहने के स्थान तथा शरीर में ममता आसक्ति से रहित और स्थित बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 18-19
निंदा स्तुति को समान कब समझा जाता है, निंदा दुख देती है, स्तुति सुख देती है जब कोई आप की स्तुति करता है तो आपके भीतर अहंकार को शांति मिलती है जब आपकी कोई निंदा करता है तब भीतर अहंकार को चोट पड़ती है।
आपका अहंकार दूसरों से निर्मित हुआ है, अहंकार समाज की देन है, आत्मा परमात्मा की देन है, आत्मा को समाज छीन नहीं सकता लेकिन अहंकार को समाज छीन सकता है, जिसको आज समाज भगवान कहता है कल उसको पापी भी कह सकता है, समाज दोनों काम कर सकता है। इसलिए जो आत्मा में नहीं अहंकार में जीता है वह हमेशा चिंतित रहता है कौन क्या कह रहा है कौन निंदा कर रहा है कौन स्तुति कर रहा है इसका सारा व्यक्तित्व दूसरों पर निर्भर है।
लेकिन जो भक्त है परमात्मा की खोज में लगा है वह पहले कदम पर ही लोगों की फिक्र छोड़ देता है, लोग उसके बारे में क्या कहते हैं वह उस बात को छोड़कर मैं कौन हूँ, परमात्मा को प्राप्त कैसे करूं इस खोज पर लगा रहता है।
कृष्ण कहते हैं निंदा स्तुति को सम समझने वाला, वही व्यक्ति सम रह सकता है जो दूसरों के विचारों से दूर हट चुका है, लोगों की धारणा नहीं, अपने से पूछने वाला कि मेरा अस्तित्व क्या है वह व्यक्ति सम हो जाता है। अहंकार दूसरों के सहारे खड़ा होता है, अहंकार एक झूठ है जो दूसरों के सहारे खड़ा होता है, सत्य तो सत्य है वह दूसरों के नहीं अपने सहारे खड़ा होता है।
भक्त रहने के स्थान में भी मोह नहीं करता प्रभु जहाँ रखे और जहाँ से हटा दे, वह जहाँ पहुंचा दे प्रभु जैसा करे वह उसी स्थान पर संतुष्ट रहता है इस भाव में रहने वाला व्यक्ति ना ही कभी बंधेगा ना ही ममता करेगा।
शत्रु-मित्र और मान-अपमान में सम (स्थिर), सर्दी-गर्मी और सुख-दुख में सम, सम्पूर्ण संसार की इच्छाओं का त्यागी, निन्दा-स्तुति में सम और मौन रहने वाला, चित को स्थिर रखने वाला, परम प्रभु में ही सन्तुष्ट रहने वाला, रहने के स्थान और शरीर में मोह ना रखने वाला, मन, बुद्धि, आत्मा को परम में स्थिर करने वाला, भगवान कहते हैं कि वह भक्त मुझे प्रिय है।
आपका अहंकार दूसरों से निर्मित हुआ है, अहंकार समाज की देन है, आत्मा परमात्मा की देन है, आत्मा को समाज छीन नहीं सकता लेकिन अहंकार को समाज छीन सकता है, जिसको आज समाज भगवान कहता है कल उसको पापी भी कह सकता है, समाज दोनों काम कर सकता है। इसलिए जो आत्मा में नहीं अहंकार में जीता है वह हमेशा चिंतित रहता है कौन क्या कह रहा है कौन निंदा कर रहा है कौन स्तुति कर रहा है इसका सारा व्यक्तित्व दूसरों पर निर्भर है।
लेकिन जो भक्त है परमात्मा की खोज में लगा है वह पहले कदम पर ही लोगों की फिक्र छोड़ देता है, लोग उसके बारे में क्या कहते हैं वह उस बात को छोड़कर मैं कौन हूँ, परमात्मा को प्राप्त कैसे करूं इस खोज पर लगा रहता है।
कृष्ण कहते हैं निंदा स्तुति को सम समझने वाला, वही व्यक्ति सम रह सकता है जो दूसरों के विचारों से दूर हट चुका है, लोगों की धारणा नहीं, अपने से पूछने वाला कि मेरा अस्तित्व क्या है वह व्यक्ति सम हो जाता है। अहंकार दूसरों के सहारे खड़ा होता है, अहंकार एक झूठ है जो दूसरों के सहारे खड़ा होता है, सत्य तो सत्य है वह दूसरों के नहीं अपने सहारे खड़ा होता है।
भक्त रहने के स्थान में भी मोह नहीं करता प्रभु जहाँ रखे और जहाँ से हटा दे, वह जहाँ पहुंचा दे प्रभु जैसा करे वह उसी स्थान पर संतुष्ट रहता है इस भाव में रहने वाला व्यक्ति ना ही कभी बंधेगा ना ही ममता करेगा।
शत्रु-मित्र और मान-अपमान में सम (स्थिर), सर्दी-गर्मी और सुख-दुख में सम, सम्पूर्ण संसार की इच्छाओं का त्यागी, निन्दा-स्तुति में सम और मौन रहने वाला, चित को स्थिर रखने वाला, परम प्रभु में ही सन्तुष्ट रहने वाला, रहने के स्थान और शरीर में मोह ना रखने वाला, मन, बुद्धि, आत्मा को परम में स्थिर करने वाला, भगवान कहते हैं कि वह भक्त मुझे प्रिय है।