येत्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यंच कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।
संनियम्येन्द्रियग्रामंसर्वत्र समबुद्धयः।
तेप्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।
सर्वत्रगमचिन्त्यंच कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।
संनियम्येन्द्रियग्रामंसर्वत्र समबुद्धयः।
तेप्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।
अर्थ और जो अपने इन्द्रिय समूह को भली भांति वश में करके चिंतन में न आने वाले सर्वत्र देखने में न आने वाले निर्विकार, अचल, ध्रुत अक्षर और अव्यक्त की तत्परता से उपासना करते हैं वे प्राणी मात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सर्वत्र सम बुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 3-4
इन्द्रियों के समुह को वश में करके अर्थात्् अपनी पाँचों इन्द्रियों (कान, नाक, आँख, जीभ, त्वचा) और पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के कारण (शब्द, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श) इन सब इन्द्रियों के समूह को वश में करके। फिर उस परमात्मा की जो चिन्तन में नहीं आने वाले है। सर्वत्र (सब जगह सम्पूर्ण दिशाओं में) देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, अक्षर (ओम) अव्यक्त (निराकार परम) की तत्परता से उपासना करते हैं, ऐसे युक्त आत्मा योगी सम्पूर्ण जीवन सर्वहित में लोगों के हित में प्रति रखने वाले और सब जगह समबुद्धि (समसाधना) वाले योगी निर्गुण निराकार मुझे ही प्राप्त होते हैं।
इन्द्रियाँ और मन को वश में करके अपनी आत्मा को परमात्मा में युक्त करके, भगवान के लिए कर्म करते हैं, फल की इच्छा त्याग कर सर्वहित का कार्य करने वाले, मृत्यु के बाद परम में विलीन हो जाते हैं।
श्री कृष्ण इस श्लोक में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त है जो मुझमें डूबे हुए हैं जिनका मन मुझ में लगा है श्रद्धा से मुझ साकार को भजते हैं वे श्रेष्ठतम योगी है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे ही मुझ तक पहुँचते हैं, वे भी पहुंच जाते हैं जो निराकार का ध्यान करते हैं यानि वे भी प्राप्त कर लेते हैं, जो शून्य के साथ एकीभाव रहते हैं अर्थार्थ मार्ग होंगे दो लेकिन दोनों की मंजिल मैं एक ही हूँ। चाहे सगुण से चले चाहे निर्गुण से दोनों का परमधाम एक ही है।
इस बात को थोड़ा समझें, आप सोच रहे होंगे कि आकार ठीक है तो निराकार कैसे ठीक होगा, आकार और निराकार विपरीत नहीं है, निराकार में ही आकार प्रकट हुआ है। लहर के विपरीत सागर नहीं क्योंकि लहर में भी सागर ही प्रकट हुआ है इसलिए लहर व सागर अलग अलग नहीं है, क्योंकि लहर सागर में ही पैदा होकर सागर में ही लीन हो जाती है तो विपरीत कैसे होगी।
निराकार और आकार विपरीत दिखाई पड़ते है लेकिन विपरीत है नहीं, क्योंकि हमारे देखने की सीमित क्षमता है, हमारे देखने की क्षमता तो इतनी कम है जिसका हिसाब नहीं। अगर मैं आपको एक सिक्का दे दूँ और आपको कहूं इसको एक साथ पूरा देख लीजिए तो आप उसको पूरा नहीं देख सकते, आप एक तरफ देखोगे तो दूसरी तरफ छिपा रहेगा जब दूसरी तरफ देखोगे तो पहला छिप जाएगा, हम एक छोटे से कंकर को भी पूरा नहीं देख सकते तो सत्य को हम पूरा कैसे देख सकते हैं।
ज्ञान से चलने वाले को शून्य होना पड़ता है और श्रद्धा से चलने वाले को पूर्ण होना पड़ता है, शून्य और पूर्ण एक ही घटना के दो नाम हैं।
साधक को पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेरी स्थिति कौन-सी है, मैं किस ढंग का हूँ, मेरा ढंग ही मेरा मार्ग बनेगा, अगर आपको कभी प्रेम का अनुभव हुआ हो और वह अनुभव आपको इतना कीमती लगा हो कि सब खोया जा सकता है, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए सही है और अगर प्रेम में आपका झुकाव न हो तो आप भक्ति में मत पड़ना फिर तुम ध्यान का ख्याल करना सारे विचार भीतर से खाली करके और भीतर साक्षी भाव को जानना आपके लिए फिर ज्ञानी का मार्ग ही सही है।
जब आपके भीतर निर्विचार हो जाए तो निराकार से मिलन हो जाएगा और जब भीतर प्रेम, श्रद्धा रह जाएगी तो सगुण से मिलन हो जाएगा।
इन्द्रियाँ और मन को वश में करके अपनी आत्मा को परमात्मा में युक्त करके, भगवान के लिए कर्म करते हैं, फल की इच्छा त्याग कर सर्वहित का कार्य करने वाले, मृत्यु के बाद परम में विलीन हो जाते हैं।
श्री कृष्ण इस श्लोक में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त है जो मुझमें डूबे हुए हैं जिनका मन मुझ में लगा है श्रद्धा से मुझ साकार को भजते हैं वे श्रेष्ठतम योगी है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे ही मुझ तक पहुँचते हैं, वे भी पहुंच जाते हैं जो निराकार का ध्यान करते हैं यानि वे भी प्राप्त कर लेते हैं, जो शून्य के साथ एकीभाव रहते हैं अर्थार्थ मार्ग होंगे दो लेकिन दोनों की मंजिल मैं एक ही हूँ। चाहे सगुण से चले चाहे निर्गुण से दोनों का परमधाम एक ही है।
इस बात को थोड़ा समझें, आप सोच रहे होंगे कि आकार ठीक है तो निराकार कैसे ठीक होगा, आकार और निराकार विपरीत नहीं है, निराकार में ही आकार प्रकट हुआ है। लहर के विपरीत सागर नहीं क्योंकि लहर में भी सागर ही प्रकट हुआ है इसलिए लहर व सागर अलग अलग नहीं है, क्योंकि लहर सागर में ही पैदा होकर सागर में ही लीन हो जाती है तो विपरीत कैसे होगी।
निराकार और आकार विपरीत दिखाई पड़ते है लेकिन विपरीत है नहीं, क्योंकि हमारे देखने की सीमित क्षमता है, हमारे देखने की क्षमता तो इतनी कम है जिसका हिसाब नहीं। अगर मैं आपको एक सिक्का दे दूँ और आपको कहूं इसको एक साथ पूरा देख लीजिए तो आप उसको पूरा नहीं देख सकते, आप एक तरफ देखोगे तो दूसरी तरफ छिपा रहेगा जब दूसरी तरफ देखोगे तो पहला छिप जाएगा, हम एक छोटे से कंकर को भी पूरा नहीं देख सकते तो सत्य को हम पूरा कैसे देख सकते हैं।
ज्ञान से चलने वाले को शून्य होना पड़ता है और श्रद्धा से चलने वाले को पूर्ण होना पड़ता है, शून्य और पूर्ण एक ही घटना के दो नाम हैं।
साधक को पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेरी स्थिति कौन-सी है, मैं किस ढंग का हूँ, मेरा ढंग ही मेरा मार्ग बनेगा, अगर आपको कभी प्रेम का अनुभव हुआ हो और वह अनुभव आपको इतना कीमती लगा हो कि सब खोया जा सकता है, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए सही है और अगर प्रेम में आपका झुकाव न हो तो आप भक्ति में मत पड़ना फिर तुम ध्यान का ख्याल करना सारे विचार भीतर से खाली करके और भीतर साक्षी भाव को जानना आपके लिए फिर ज्ञानी का मार्ग ही सही है।
जब आपके भीतर निर्विचार हो जाए तो निराकार से मिलन हो जाएगा और जब भीतर प्रेम, श्रद्धा रह जाएगी तो सगुण से मिलन हो जाएगा।