अद्वेष्टासर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममोनिरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।
सन्तुष्टः सततंयोगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तः स मे प्रियः।।
निर्ममोनिरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।
सन्तुष्टः सततंयोगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तः स मे प्रियः।।
अर्थ सब प्राणियों में द्वेष भाव से रहित और मित्र भाव वाला तथा दयालु भी मोह रहित, अहंकार रहित सुख-दुःख की प्राप्ति में सम क्षमाशील निरंतर संतुष्ट योगी, शरीर को वश में किए हुए दृढ निश्चय वाला मुझ में अर्पित मन बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 13-14
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित तो जैसे ही व्यक्ति शांत होता है उसका द्वेष शांत हो जाता है और शांति को वही प्राप्त होता है या तो ध्यान से चलें, विचार शून्य हो जाएं या प्रेम से चलें और भक्ति पूर्ण हो जाएँ या इसको उल्टा समझ लें जैसे ही द्वेष समाप्त होता है शांत हो जाता है या जैसे ही शांत होता है द्वेष भाव रहित हो जाता है।
मनुष्य को कभी कभी स्वार्थ रहित होना सीखना चाहिए फिर धीरे-धीरे उसका आनंद आने लगेगा कभी बिना स्वार्थ के लोगों के काम आना चाहिए कभी किसी को बिना कारण ही अनजान व्यक्ति को मुस्कुराकर के राम-राम करनी चाहिए फिर धीरे-धीरे उस व्यक्ति का सबके प्रति मित्र भाव बन जाता है।
कृष्ण कहते हैं मित्र भाव वाला तथा दयालु, दयालु तो सब होते हैं लेकिन उसमें मैं का अहंकार बहुत होता है, जैसे आप बाजार से निकलते हैं कोई भिखारी आपसे दो रूपय मांग ले और आप अकेले हो तो आप उसकी तरफ देखते तक नहीं, और अगर आप के साथ दो चार दोस्त हों तो आप भिखारी के बिना माँगे ही जाकर भीख दे देते हो यानि चार लोग आपके दयालु होने की वाह वाही तो करेंगे या आप किसी को भीख देते हो तो उसके बदले में आपको दुआ भी चाहिए यानि उसके बदले में आपको अच्छा फल चाहिए, तब भीख देते हो, कभी बिना कारण बिना फल की इच्छा किये किसी के दुख को देखकर मदद करना और वह सब के प्रति आदत बना लेना वह होता है मित्र भाव वाला दयालु।
मोह हटे और प्रेम बैठे तब आप परमात्मा की तरफ पहुँचेंगे, मोह भी मुक्ति में बंधन है, मोह त्याग का यह मतलब नहीं कि प्रेम ना करें, प्रेम करें सबसे लेकिन मोह ना करें, यानि नदी तो बहे लेकिन तालाब ना बने इसका ख्याल रखें।
अहंकार रहित जितना गहरा प्रेम होगा उतना ही अहंकार शांत होगा जितना कम होता है प्रेम उतना ज्यादा होता है अहंकार, अगर प्रेम बढ़ता है तो अहंकार पिघल जाता है अहंकार से सीधा छुटकारा नहीं होगा, आप प्रेम बढ़ाएँ जैसे ही प्रेम बढ़ेगा अहंकार विलीन हो जाएगा प्रेम और अहंकार में एक ही शक्ति काम करती है, आपने प्रेम को फैलाएँ पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, जीव जंतु सम्पूर्ण ब्रह्म को प्रेम से देखें अहंकार पिघल जाएगा।
सुख-दुख की प्राप्ति में सम, सुख आता है तो दुख भी आता है, क्या कभी आपने ख्याल किया है सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, सुख के पीछे ही दुख छुपा होता है उसका ही साथी है दोनों कभी अलग नहीं हो सकते दोनों साथ ही रहते हैं, उनका जोड़ा कभी छूटता नहीं जब दुख आता है तब उसके पीछे सुख भी छिपा रहता है, जो हमें दिखता है उसको ही हम देखते हैं, जो पीछे छिपा रहता है वो हमें दिखता ही नहीं, जिस मात्रा में दुख बढ़ता है उसी मात्रा में सुख भी बड़ता है वह उसी की छाया है आप इससे भाग नहीं सकते। जिस समय व्यक्ति को दिखाई पड़ जाता है कि सुख दुख दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, उस समय वह समभाव हो जाता है।
योग में युक्त हुआ योगी लाभ हानि में संतुष्ट, मन और शरीर को वश भी किया हुआ मेरे में अर्पण किए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है। यह गुण विकसित करें अगर परमात्मा के प्रिय बनना है तो।
मनुष्य को कभी कभी स्वार्थ रहित होना सीखना चाहिए फिर धीरे-धीरे उसका आनंद आने लगेगा कभी बिना स्वार्थ के लोगों के काम आना चाहिए कभी किसी को बिना कारण ही अनजान व्यक्ति को मुस्कुराकर के राम-राम करनी चाहिए फिर धीरे-धीरे उस व्यक्ति का सबके प्रति मित्र भाव बन जाता है।
कृष्ण कहते हैं मित्र भाव वाला तथा दयालु, दयालु तो सब होते हैं लेकिन उसमें मैं का अहंकार बहुत होता है, जैसे आप बाजार से निकलते हैं कोई भिखारी आपसे दो रूपय मांग ले और आप अकेले हो तो आप उसकी तरफ देखते तक नहीं, और अगर आप के साथ दो चार दोस्त हों तो आप भिखारी के बिना माँगे ही जाकर भीख दे देते हो यानि चार लोग आपके दयालु होने की वाह वाही तो करेंगे या आप किसी को भीख देते हो तो उसके बदले में आपको दुआ भी चाहिए यानि उसके बदले में आपको अच्छा फल चाहिए, तब भीख देते हो, कभी बिना कारण बिना फल की इच्छा किये किसी के दुख को देखकर मदद करना और वह सब के प्रति आदत बना लेना वह होता है मित्र भाव वाला दयालु।
मोह हटे और प्रेम बैठे तब आप परमात्मा की तरफ पहुँचेंगे, मोह भी मुक्ति में बंधन है, मोह त्याग का यह मतलब नहीं कि प्रेम ना करें, प्रेम करें सबसे लेकिन मोह ना करें, यानि नदी तो बहे लेकिन तालाब ना बने इसका ख्याल रखें।
अहंकार रहित जितना गहरा प्रेम होगा उतना ही अहंकार शांत होगा जितना कम होता है प्रेम उतना ज्यादा होता है अहंकार, अगर प्रेम बढ़ता है तो अहंकार पिघल जाता है अहंकार से सीधा छुटकारा नहीं होगा, आप प्रेम बढ़ाएँ जैसे ही प्रेम बढ़ेगा अहंकार विलीन हो जाएगा प्रेम और अहंकार में एक ही शक्ति काम करती है, आपने प्रेम को फैलाएँ पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, जीव जंतु सम्पूर्ण ब्रह्म को प्रेम से देखें अहंकार पिघल जाएगा।
सुख-दुख की प्राप्ति में सम, सुख आता है तो दुख भी आता है, क्या कभी आपने ख्याल किया है सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, सुख के पीछे ही दुख छुपा होता है उसका ही साथी है दोनों कभी अलग नहीं हो सकते दोनों साथ ही रहते हैं, उनका जोड़ा कभी छूटता नहीं जब दुख आता है तब उसके पीछे सुख भी छिपा रहता है, जो हमें दिखता है उसको ही हम देखते हैं, जो पीछे छिपा रहता है वो हमें दिखता ही नहीं, जिस मात्रा में दुख बढ़ता है उसी मात्रा में सुख भी बड़ता है वह उसी की छाया है आप इससे भाग नहीं सकते। जिस समय व्यक्ति को दिखाई पड़ जाता है कि सुख दुख दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, उस समय वह समभाव हो जाता है।
योग में युक्त हुआ योगी लाभ हानि में संतुष्ट, मन और शरीर को वश भी किया हुआ मेरे में अर्पण किए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है। यह गुण विकसित करें अगर परमात्मा के प्रिय बनना है तो।