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यो न हृष्यति नद्वेष्टि न शोचति न काङ् क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागीभक्तिमान्यरू स मे प्रियरू ।।
अर्थ जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊंचा उठा हुआ है वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 17 राग, द्वेष, हर्ष, शोक भगवान के भक्त में ये चारों विकार (कमियाँ) नहीं होते, उनको यह ज्ञान होता है कि संसार का हर क्षण वियोग हो रहा है। आत्मा का कभी वियोग होता ही नहीं, संसार के साथ कभी संयोग था ही नहीं और ना ही रहेगा।
परमात्मा का आत्म साक्षात्कार होने पर भक्त न तो किसी वस्तु की इच्छा करता है ना शोक और ना द्वेष, हर्ष करता है। भक्त में द्वन्द्व नहीं रहता निद्वन्द्व हो जाता है। भगवान कहते हैं कि ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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