ये तु सर्वाणिकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैवयोगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
अनन्येनैवयोगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
अर्थ परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।
व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 6
भगवान कहते हैं अर्जुन को कि तू सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण कर अर्थार्थ मनुष्य कोई भी अच्छा काम कर दे, तो उस काम का क्रेडिट खुद लेता है कि मैंने किया है यह काम, इसलिए वह उस कर्म का कर्त्ता बन जाता है। कर्त्तापन आते ही व्यक्ति में अहंकार आ जाता है। ‘मैं’ की वाहवाही का अहंकारी व्यक्ति में क्रोध बहुत ज्यादा होता है, क्रोध से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। अपने को कर्त्ता मानने से ही मनुष्य बार-बार दुखों के घर इस मृत्युलोक से बन्ध जाता है। कुछ लोगों की आदत होती है, अपने जीवन की पुरानी कहानियाँ सुनाने की, वह इसलिए बताते हैं कि लोग उनकी वाह वाही करें और बताने वाले को उन बातों में यादों में आसक्तियाँ होती है, कि जिन्दगी तो उस वक्त थी। वह व्यक्ति उन पुराने समय की यादों से बँध जाता है। इसलिए भगवान कहते हैं तू सम्पूर्ण कर्मों को और उसके फल को मेरे अर्पण कर अर्थात्् आज तक जो भी कर्म किए अच्छे बुरे वह सब कर्म तू मेरे अर्पण कर अर्थात्् जब आप अपने जीवन को दृष्टा बनकर देखोगे तो आपको पता लगेगा कि आपने कुछ नहीं किया। आपको तो विचार आते रहे और आप चलते रहे, जब आप साक्षी बनकर अपने आपके जीवन को देखते हो तो आप पाओगे कि मैं बलात लगाये हुए क्यों दौड़ रहा था। आपको यह महसूस होगा कि अब तक जो जीवन जीया वह ऐसे लगेगा कि कोई सपना ही था। आपको लगेगा कि मैंने तो कुछ नहीं किया अपने आप होता चला गया था। इसलिए भगवान कहते हैं कि सम्पूूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण कर, अपने को कर्त्ता ना मान और यह सोच कि सब कुछ करने वाले भगवान ही हैं, ना पहले कुछ किया और आगे जो भगवान करवाएगा वह भी भगवान ही है सब कर्मों के कर्त्ता, भगवान के लिए अगर आपको कर्म करने हैं, उसमें आपको अपना स्वार्थ शून्य करना होगा और अपने सम्पूर्ण कर्म सर्वहित के होने चाहिए, सर्वहित के काम करने पर भी कर्ता खुद को ना माने, भगवान को ही माने सम्पूर्ण कर्मों के कर्ता सम्पूर्ण कर्म भगवान को अर्पण करके। तू मेरे आश्रित होकर अनन्य योग से मेरा ही ध्यान करता हुआ मेरी ही उपासना कर।