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तेषामहंसमुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामिनचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।

मय्येव मनआधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसिमय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।
अर्थ  हे पार्थ ! मुझमें चित वाले उन भक्तों का मैं मृत्यु, संसार सागर से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ। तू मुझमें मन को स्थापन कर और मुझमें ही बुद्धि को प्रविष्ट कर, उसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कोई शक नहीं है। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 7-8 हे पार्थ मुझमें अपने मन को स्थिर करने वाले उन योगियों का मैं मृत्यु सागर से शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ। भगवान आगे कहते हैं मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। दो बातें कही हैं यहाँ (मन और बुद्धि) लेकिन पहले कहा मुझ में मन को लगा, आप सभी लोग पहले बुद्धि को लगाने की कोशिश करते हैं क्योंकि तर्क चाहिए तब हम भाव करते हैं लेकिन यह उल्टा है, पहले भाव करना है तब कृष्ण कहते हैं मुझ में मन को लगा।
एक बार मन लग जाए फिर तो बुद्धि भी लग जाती है क्योंकि भाव गहरा है तर्क ऊपर ही है, बच्चा भाव के साथ पैदा होता है तर्क तो दूसरों से बाद में सीखता है, मन तो अपना है बुद्धि तो उधार है, बस एक बार मन लग जाए बुद्धि अपने आप लग जाती है।
अपने भाव में बहें क्योंकि भाव अपना स्वभाव है इसलिए कृष्ण कहते हैं पहले अपने भाव को मुझ से जोड़ ले फिर बुद्धि अपने आप लग जाएगी।
अगर मन और बुद्धि मुझ में लगाएगा तो मुझमें निवास करेगा इसमें ही कोई संशय नहीं है, मन से शुरू करें तो कोई संशय नहीं अगर बुद्धि से शुरू करें तो संशय ही संशय है। तुम्हारी बुद्धि से जो सत्य दिखाई पड़ रहा है सत्य उतना ही नहीं है, प्रेम के भाव में सत्य बहुत बड़ा है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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