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श्री भगवानुवाच
मय्यावेश्य मनोये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धयापरयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।
अर्थ श्री कृष्ण बोले - मुझमें मन को लगाकर नित्य निरंतर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में परम युक्त आत्मा योगी हैं। व्याख्यागीता अध्याय 12 का श्लोक 2 अर्जुन के पूछने पर कृष्ण कहते हैं कि भक्ति ही श्रेष्ठ है किस कारण? क्योंकि बुद्धि कितनी भी सोचे अहंकार के पार जाना बहुत मुश्किल है, प्रेम में एक छलांग में अहंकार से बाहर हो जाता है, बुद्धि लाख प्रयत्न करके भी अहंकार से बाहर नहीं हो सकती, क्योंकि मैं कुछ भी करूँ पूजा, ध्यान, योग लेकिन मैं तो बना ही रहता हूँ, भक्ति में अहंकार एक क्षण में छूट जाता है, क्योंकि भक्ति का अर्थ होता है समर्पण। यानि कि अब मैं नहीं तू ही है, भक्ति में मेरा मिटना ही प्रभु को पाने का मार्ग है, जब तक मैं हूँ तब तक दूरी बनी रहेगी जितना मैं मिटूँगा उतनी ही दूरी मिट जाएगी, इसलिए कृष्ण भक्ति योग को श्रेष्ठ कहते हैं।
भक्त और ज्ञानी में यह फर्क है कि ज्ञानी बहुत चक्कर लगाता है बड़े शास्त्र है बड़े सिद्धांत है, बड़े वाद-विवाद हैं, ज्ञानी उन सब में भटकता है। भक्त पहले ही कदम पर अपने को छोड़ देता है उसी क्षण परमात्मा उसका हाथ पकड़ लेता है।
कृष्ण कहते हैं मुझ में मन को लगा कर, परम श्रद्धा से युक्त होकर, यानि मेरे ही प्रेम में पूरी तरह डूब कर, अपने हृदय में पूरी तरह मुझको ही भरकर, अपने को पूरी तरह खोकर मैं ही बचूँ, रोम-रोम मेरा ही भजन ध्यान करे, जहाँ भी देखे मैं ही दिखूँ, पूरे जगत में मेरी ही ध्वनि सुनाई दे, वह युक्त आत्मा योगी है और वही भक्त श्रेष्ठ है। प्रभु में प्रेम परम योग है, प्रेम से श्रेष्ठ कोई अनुभव नहीं, इसलिए भक्ति श्रेष्ठ मार्ग बन जाती है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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