न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।
अर्थ हे धनन्जय! इस सृष्टि के उत्पत्ति आदि कार्यों में मैं बिना किसी आसक्ति और उदासीन की तरह बना रहता हूँ। उन कर्मों में मुझे कोई बंधन नहीं होता व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 9
भगवान कह रहे हैं कि उन कर्मों में जो मानव अपने स्वभाव से आगे से आगे जन्मता मरता है और जो यह सम्पूर्ण ब्रह्म प्रभु ने बना रखा है। जैसे चारों युगों के एक हजार चक्कर पूरे होने पर विनाश व फिर ब्रह्म के दूसरे दिन सम्पूर्ण ब्रह्म की दोबारा उत्पत्ति करना। उन सब कर्मों में ईश्वर ना कोई इच्छा करते हैं और ना द्वेष, भगवान किसी कर्म से लिप्त नहीं होते प्रभु के लिए यह सब नाटक (मूवी) है। जैसे आपने मूवी देखी वह आपके लिए सिर्फ मनोरंजन (एंटरटेनमेंट) था आपको पता है मूवी में जो देखा सुख दुख, रोना, जीना, मरना सब नाटक था। मूवी में ना कोई मरा और ना जन्मा, आपको पता होता है, नाटक का नट अगली मूवी में दोबारा रूप बदलकर नया नाटक करेगा। ऐसे ही प्रभु ने अपने मनोरंजन केे लिए यह संसार नाटक रच रखा है, प्रभु को पता है कि यह नाटक है इसमें क्या लिप्त होना, इस मूवी में हर मनुष्य नट है, जीवन रूपी मूवी में सब अपना-अपना रोल निभा रहे हैं। मनुष्य इस नाटक को भूलकर अपने को कर्त्ता मानने लगा है। इसलिए जीव अहंकार मोह पापों से बन्ध जाता है। बंधे हुए नट को तब तक आजादी नहीं है जब तक वह आत्मा को अपना स्वरूप मानकर अहंकार आसक्तियाँ ना छोड़ दे। प्रभु के लिए यह मूवी ऐसी है जैसे आपके लिए थियेटर की मूवी आप मूवी से लिप्त नहीं होते, ऐसे ही भगवान कर्मों से लिप्त नहीं होते।
बुद्ध ने कहा कि एक शाम को मैं नदी के पास से गुजर रहा था तो वहाँ बच्चे खेल रहे थे, तो बच्चों का खेल देखकर बुद्ध कहते हैं कि मैं वहाँ रूक गया, रूक इसलिए गया कि बच्चे भी बड़ों की तरह मिट्टी के घर बना रहे थे और बच्चे उछल रहे थे तो एक दो बच्चों के पैर दूसरे बच्चे के बनाये घर पर पड़ गये और फिर वह बच्चे बड़ों की तरह आपस में एक-दूजे से लड़ रहे थे कि तुमने मेरा घर क्यों ढहा दिया, फिर वह घर दोबारा बनाने लगे, इतने में बस्ती कि तरफ से एक बच्चा आवाज लगाते हुए उनके पास गया कि तुम्हारी मांऐ तुमको घर बुला रही हैं, फिर वह बच्चे अपने ही बनाये घरों पर उछल कुद करके घरों को मिटा कर अपने असली घर की तरफ दौड़ गये।
बच्चों को पता था यह अपना असली घर नहीं असली घर वह है जहाँ माँ है इसलिए बच्चों के लिए घर बनाना और फिर खुद ही मिटा देना एक खेल होता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं, परमात्मा के लिए भी यह संसार एक खेल है, परमात्मा खुद ही रचते हैं और खुद ही मिटा देते हैं, इस सम्पूर्ण रचना आदि खेल में परमात्मा अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हैं, खेल के कर्म से परमात्मा खुद नहीं बांधते। कृष्ण के लिए संसार एक लीला है क्योंकि आसक्ति बांधती है, कर्म नहीं बांधते, कर्म अनासक्त हो तो बंधन नहीं होता। लीला का मतलब होता है खेल, कृष्ण के जीवन को देखोगे तो कृष्ण के लिए जीवन एक खेल से ज्यादा और कुछ नहीं, कृष्ण के लिए जीवन एक उत्सव है, कृष्ण के जीवन को देखोगे तो कृष्ण आपको बांसुरी बजाते और गोपियों के साथ नाचते नजर आएंगे और कृष्ण का दूसरा रूप देखेंगे तो वही बांसुरी बजाने वाले कृष्ण युद्ध करते या कराते नजर आएंगे, कृष्ण के लिए जीवन खेल से ज्यादा और कुछ नहीं तभी श्री कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा।
आज बच्चों को छोड़कर, बड़े और बुजुर्ग को देखोगे तो भी खेल तो सब मिट्टी के घर के लिए ही रहे हैं, परन्तु मनुष्य इस घर में इतनी आसक्ति कर लेता है, कि वह अपना असली घर परम धाम को भूल कर इस नाशवान संसार में आसक्त रहता है, अपना असली घर यह नहीं अपना असली घर तो परमधाम है, यह जीवन तो एक लीला है यानि यह तो एक खेल, नाटक है इसको कृष्ण की तरह उत्सव समझ कर जीओ।
आजकल अगर आप धर्म गुरूओं को देखोगे या किसी भक्त को देखोगे तो वह बिल्कुल उदास व मरे-मरे नजर आएंगे उनको देखकर तो आपको लगेगा कि यह अगर इतने उदास हैं तो परमात्मा तो रो ही रहा होगा, आजकल के महात्मा तो अपने भीतर मरघट लिये ही घूम रहे हैं।
अगर आज कृष्ण दोबारा यहाँ आकर किसी गली या चौराहे पर बांसुरी बजाऐ तो आप जल्दी से पुलिस को बुलाओगे और कहोगे कि चौराहे पर कोई कृष्ण का बहरूपिया बनकर घूम रहा है, पता नहीं कौन चोर-लुटेरा है, क्योंकि हम सबको मुर्दा महात्मा देखने की आदत पड़ चुकी है, अगर आज कोई महात्मा अगर हंसता व खुश नजर आये तो उसको कोई महात्मा ही नहीं मानेगा हम सोचते हैं कि अगर महात्मा है तो उदास व रो के दिखा, आज के वक्त में अगर रोतलु चहरा है तो वही सच्चा महात्मा है, कृष्ण के लिए जीवन एक उत्साह है, एक खेल है।