सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।
अर्थ हे कुन्तीपुत्र! कल्पों के अंत (प्रलय) में सभी प्राणी मुझमे ही समाहित होते है। जब संसार के कल्पों ( समय ) का आरम्भ होता है, तो मैं उन सभी की पुनः रचना करता हूँ व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 7-8
ब्रह्म के एक दिन का समय है चारों युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलि) इन चारों युगों का एक हजार बार चक्र पूरा होने पर ब्रह्म का एक दिन होता है। फिर पूरे संसार का विनाश हो जाता है। फिर इतने ही समय तक रात्री रहती है। फिर संसार की दोबारा उत्पत्ति होती है जब दोबारा प्रकृति प्रभु रचते हैं, वह ब्रह्म का एक दिन दोबारा शुरू हो जाता है। उस वक्त प्रभु जीव के पाप पुण्य व आशक्ति के जोड़ से दोबारा रच देते हैं।
भगवान योग माया से छिपे रहते हैं और प्रकृति जो सम्पूर्ण ब्रह्म दिखाई दे रहा है, इसको प्रभु अधीन करके मानव के स्वभाव से (प्रकृति के गुण से) सब मनुष्यों को उनकी आसक्ति के हिसाब से बार-बार उनको रचते रहते हैं, प्रकृति भगवान का सॉफ्टवेयर, कैल्कुलेटर है इच्छा के हिसाब से प्रकृति अपने आप जोड़कर के वैसे ही घर, देश, धर्म में जन्म दिलवा देती है अध्याय 7 के 25 नं. श्लोक देखें।
बीज में ही पूरा पेड़ छिपा है, जैसे आप बीज को अपनी हथेली पर रखो और उस बीज में आप देखना चाहो तो आपको उस बीज में कहीं पेड़ दिखाई नहीं देगा, आप उस बीज को तोड़कर भी देखोगे तो भी आपको उसमें कोई पेड़ दिखाई नहीं देगा, लेकिन उस बीज में पूरा पेड़ छिपा हुआ है, उस बीज में जड़, तना, शाखा, टहनियां, पते, फूल, फल सारा पेड़ का भविष्य उस बीज में है, यह बीज पेड़ बनकर अंत में फिर बीज बन जाता है, उस बीज में ही पेड़ है और उस पेड़ में फिर बीज है।
ऐसे ही हम दूसरा उदाहरण लेते हैं, जैसे माँ के पेट में बच्चे ने गर्भ लिया, वह जो पहला अणु गर्भ में बच्चे का उस अणु में बच्चे का पूरा जीवन छिपा है, उस अणु में उस बच्चे की पूरी कहानी छिपी है कि यह कितने साल जिएगा, यह अपने जीवन में क्या करेगा, कितने इसको सुख-दुःख मिलेंगे सम्पूर्ण जीवन कि दास्तां उस छोटे से अणु में छिपी है और उस अणु में भी आने वाले बच्चों के अणु छिपे है, कृष्ण कहते हैं मैं ही सर्जन करता हूँ और मैं ही प्रलय करता हूँ, बीज की यात्रा जहाँ से शुरू होती है वहाँ ही खत्म होती है कृष्ण कहते हैं महाप्रलय के समय सम्पूर्ण प्राणी मुझमें लीन होते है और कल्पों के आदि में मैं उन सब प्राणीयों को उनके कर्मों के हिसाब से दोबारा रचता हूँ। जैसे ही ब्रम्हा का एक दिन पूरा होता है, सम्पूर्ण प्रकृति का विनाश हो जाता है, विनाश के समय सम्पूर्ण जगत अग्नि बन जाता है, चांद, सूरज, तारे, पृथ्वी सम्पूर्ण जगत ब्रम्हा की रात्री में लीन हो जाते हैं, फिर उतने ही समय तक रात्री रहती है और रात्री के बाद जब ब्रम्हा के दिन कि शुरूवात होती है तब बीज रूपी मन यानि जीव जिस-जिस आसक्तियों से बंधा है उनके हिसाब से उनको वैसा-वैसा गर्भ दोबारा मिल जाता है।
कृष्ण कहते हैं प्रकृति के गुणों से मोहित हुआ जीव की जैसी इच्छा रहती है, उन इच्छा रूपी बीज के हिसाब से मैं उनको बार-बार रचता रहता हूँ।
परम विराट में जन्म और मृत्यु जुड़े हुऐ हैं, जैसे एक छोर जन्म है तो दुसरा छोर मृत्यु, जन्म और मृत्यु अलग-अलग नहीं एक ही धागे के दो छोर हैं, वैसे मनुष्य जन्म से लेकर करता क्या है सिवाय मौत तक पहंुचने का सफर ही तय करता है और जहाँ मृत्यु होती है, वहाँ से दोबारा इच्छा के हिसाब से बीज की शुरूवात हो जाती है, प्रकृति के वश में हुऐ जीव को परमात्मा बार-बार रचते हैं।