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मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।
अर्थ सारा संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ और वे मुझमें स्थित नहीं हैं। परन्तु तू मेरा ईश्वरीय योग सम होकर देख मैं सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और उन्हें पालन-पोषण करने की शक्ति हूँ , लेकिन मैं स्वयं उनमें संग्रहित नहीं हूँ व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 4-5 भगवान कह रहे हैं कि सब मानव मुझमें स्थित नहीं है (सब संसार माया में स्थित है) किसी को पता नहीं कि भगवान कहाँ है सबको संसार दिखाई दे रहा है, कोई भी परमात्मा में एकीभाव नहीं रहते, फिर भी प्रभु कह रहे हैं कि मैं सबको जन्म दिला कर उनका पालन पोषण करता हूँ यह मेरी योग शक्ति है फिर भी मेरा आत्मा भूतों में नहीं यानि मानव के कर्मों में प्रभु लिप्त नहीं होते और ना ही फल में। कृष्ण कहते हैं यह जो प्रकट हुआ है संसार इसमें मैं ही व्याप्त हूँ, इस सम्पूर्ण ब्रह्म में मैं ही भरा हुआ हूँ, इस सम्पूर्ण रूपों के भीतर मेरा ही अरूप है, इन सब आकारों के भीतर मैं ही निराकार हूँ, इस दृश्य जगत में मैं ही अदृश्य हूँ, लेकिन श्रद्धा से ही समझ आता हूँ। भगवान कहते हैं सम्पूर्ण प्राणी मुझमें स्थित है परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, क्योंकि सुख-दुःख मनुष्यों को अपने कर्मों के हिसाब से मिलने हैं, कर्मों में कर्ता मनुष्य खुद को मानता है तो फल भी खुद को भोगने पड़ते हैं, भगवान कहते हैं मैं मनुष्य के कर्मों में लिप्त नहीं होता, मनुष्य के कर्मों में मनुष्य खुद लिप्त होता है और ना ही मनुष्य परमात्मा में स्थित है क्योंकि मनुष्य तो संसार के भोगों में स्थित है। कृष्ण कहते हैं मेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है, मेरा निराकार सब आकारों में छिपा है, यह सारा जगत जो दिखाई पड़ रहा है, यह मुझ में स्थित है, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। जैसे दो चक्र है एक बड़ा और उस बड़े चक्र में दूसरा समाया हुआ है, जो छोटा चक्र है वह बड़े चक्र में समाया हुआ है, बड़ा छोटे से प्रकट होता है अगर बड़ा एक ही हो तो उसको छोटा या बड़ा हम नहीं कह सकते फिर तो बस वह है, लेकिन जो बड़ा चक्र है वह बड़े में नहीं समाया होता, लेकिन छोटे चक्र से बड़ा चक्र प्रकट होता है, लेकिन उसमें समाया नहीं होता सागर कह सकता है सभी नदियाँ मुझ में समाई है, लेकिन मैं नदियों में नहीं समाया। ऐसे ही मनुष्य में परमात्मा है लेकिन मनुष्य के कर्मों में परमात्मा नहीं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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