मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।
अर्थ मुझमे मन को लगा, मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञ कर, मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार खुद को मुझमें लगाकर और मुझेमें ही परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 34
पहले दो प्रकार की नाव हुआ करती थी, एक तो जिस दिशा में जाना होता नाव का खेवईया उसी दिशा में चप्पू चलाता था, दूसरी प्रकार की नाव हुआ करती थी जिसके ऊपर तिरपाल का बना हुआ छाता हुआ करता था, जिस दिशा में जाना होता अगर वह हवा चले तो छाता खोल दिया जाता था, वह नाव को उसी दिशा में बहा ले जाती थी और अगर सागर के बीच में हवा की दिशा बदल जाती थी तो छाते को वहीं खींच कर फोल्ड कर लिया जाता था और बीच भंवर में उस दिशा में हवा कब चलेगी इंतजार किया जाता था, जब उसी दिशा में हवा चलती छाता फिर खोल दिया जाता था।
यहाँ कृष्ण कहते हैं अर्जुन को कि तुम अपनी पतवार ना चलाओ, छोड़ दो हवा में वहाँ जहाँ ले जाये उस की मर्जी। यानि कृष्ण कहते हैं तू अपना सब कुछ मेरे पर छोड़ दे, मैं जहाँ ले जाऊँ तुझे, तू बस बहता हुआ चल, तू मेरा भक्त बन और अपने विचलित मन को तू स्थिर करके मुझमें ही लग जा। हर क्षण तू मेरा ही ध्यान कर और जहाँ भी तुझे तेज यानि आभा नजर आये तो मेरी ही लीला समझ कर मुझको ही नमस्कार कर। इस प्रकार सब कुछ मेरे अर्पण कर देने से अंत में तू मुझे ही प्राप्त होगा यानि परमगति, परमधाम को प्राप्त होगा।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’