पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
अर्थ जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प ,फल या जल श्रद्धा भक्ति के साथ अर्पण करता है, मैं उस भक्ति से युक्त परिशुद्ध मनुष्य के द्वारा उपहार प्रेम से स्वीकार कर लेता हूँ। हे कुन्तीपुत्र! जो कुछ भी तू करता है, जो तू अभिषेक करता है, जो भोजन करता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है, जो तप करता है, उस सब को मुझको समर्पित कर दे व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 26-27
आप कुछ भी परमात्मा को अपर्ण करते हैं वह सब परमात्मा का ही दिया हुआ है, अगर आपको कुछ भी चढ़ाना हो तो वह चढ़ाएं जो परमात्मा का दिया हुआ ना हो, भगवान ने इसी अध्याय के श्लोक सोलह में कहा था घी, औषधि, मन्त्र, अग्नि सब मैं हूँ अगर सब कुछ में ही परमात्मा समाये हुऐ हैं सब कुछ ही परमात्मा का है तो हम क्या अर्पण करें, तो एक ही चीज है भगवान को अर्पण करने के लिए वह है आपका अहंकार यानि कर्ता भाव यानि यह सब मैं कर रहा हूँ। व्यक्ति अपनी गर्दन भी काट कर चढा सकता है अगर गर्दन भी कट जाए तब भी मनुष्य का कर्ता भाव नहीं कटता यानि चढाने का जो भाव है कि मैं चढा रहा हूँ, गर्दन कटने के बाद भी भीतर कर्ता तो रह ही जाता है। अगर परमात्मा के कुछ अर्पण करना हो तो सबसे पहले अपने अहंकार को अर्पण करें, जब तक भीतर कर्ता भाव है तब तक आप कितने ही नाम जप के रट्टे मार लो कितने ही शब्दों के मंत्र पढ़ते रहो कोई फायदा नहीं होगा।
कृष्ण कर्म छोड़ने की बात नहीं कर रहे, कर्ता भाव छोड़ने की बात कर रहें है, कर्म तो बस्ती के साथ अपने आप छुट जाएंगे कर्ता भाव छोड़ने को कह रहे हैं। अगर कर्म छोड़कर जंगलों में भी चले गये तो भी छोड़ने वाला कर्ता भाव साथ जाएगा। जब तक भीतर ‘मैं’ है यानि कर्ता भाव है तब तक कितने भी यज्ञ, दान, तप, करते रहो बुद्धि शुद्ध नहीं हो सकती, भगवान कहते हैं शुद्ध बुद्धि वाले भक्त का अर्पण किया मैं स्वीकार कर लेता हूँ।
शुद्ध बुद्धि का अर्थ शुद्ध विचार रखने नहीं, कृष्ण के कहने का अर्थ और गहरा है, विचार चाहे शुद्ध हो चाहे अशुद्ध जब तक विचार है तब तक वह बुद्धि अशुद्ध ही मानी जाती है। अगर किसी बंदी को लोहे की चेन से बांध रखा हो तो भी बंधन है और चाहे उसको सोने की चेन से बांध रखा हो तो भी बंधन है। विचार चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध दोनों ही रूप में बंधन है। कृष्ण के कहने का मतलब है विचार ना अशुद्ध हो और ना ही शुद्ध हो, विचार शून्य हो तब शुद्ध बुद्धि मानी जाती है। एक व्यक्ति गाय को बांधे हुऐ रस्सी हाथ में पकड़ कर जा रहा था सामने से साधु ने उस व्यक्ति से पूछा कि गाय को आपने बांध रखा है या गाय ने आपको बांध रखा है उस व्यक्ति ने कहा क्या पागल साधु है उसने कहा कि क्या आपको दिखाई नहीं दे रहा कि मैंने गाय को बांध रखा है, तो साधु ने कहा कि ठीक है तू गाय से नहीं बंधा तो रस्सी छोड़ दे, तो व्यक्ति ने कहा कि मैं रस्सी छोड़ दूंगा तो गाय भाग जाएगी। साधु ने कहा गाय भागेगी तो तू क्या करेगा, उसने कहा मैं उसके पीछे दौड़ूगां, साधु ने कहा फिर तो गाय ने तेरे को बांध रखा है, अगर तुम रस्सी छोड़ो गाय तुम्हारे पीछे आए तो तुमने गाय को बांध रखा है।
ऐसे ही मनुष्य विचार और वासना में बंधकर वासना के पीछे दौड़ रहा है, विचार और वासना दोनों के छुटने पर शुद्ध बुद्धि होती है, भगवान कहते हैं शुद्ध बुद्धि वाले भक्त का दिया हुआ पत्र, पुष्प, फल, जल को मैं प्रेम पूर्वक अर्पण करता हूँ, इस सूत्र को आईये अच्छे से समझते हैं, सबसे पहले भगवान ने कहा पत्र फिर कहा पुष्प, फल, जल शुरूवात में पत्ता होता है फिर वह पत्ता ही फूल बन जाता है, फिर फूल ही फल बन जाता है, कृष्ण कहते हैं कि अगर तू अभी तक पत्ता है तो भी अपने आपको मेरे अर्पण कर, यानि अगर तुम्हारी शुरूवात है भक्ति की तो भी मेरे अर्पण हो जा, तब भी मुझे प्राप्त होगा और अगर तू फूल बन चुका है तो भी आ जा, अगर तुमको ज्ञान हो चुका है यानि फल बन चुका है तो भी मेरे अर्पण हो जा और अगर अभी जल है तो भी अपने को मेरे समर्पण कर यानि ना फल है ना पत्ता कुछ भी नहीं है तो भी आजा। यानि जल ही पत्ता बनता है, जब पत्ता नहीं था तब वह पेड़ में जल ही था फिर जल ही पत्ता बना फिर पत्ता ही फूल बना फिर फूल ही फल बना। कृष्ण कहते हैं तू कौन-सी भी स्टेज पर हो चाहे, तू अपने आप को मेरे अर्पण कर, इस तरह से सब कुछ मेरे अर्पण करने वाले को मैं प्रेम पूर्वक स्वीकार कर लेता हूँ। कृष्ण कहते हैं कि हे कुन्ती पुत्र तू जो कर्म करता है यज्ञ, दान, तप, करता है वह सब मेरे अपर्ण कर दे।
ज्ञानयोगी तो संसार के साथ माने गये सम्बन्ध का त्याग करता है, कर्मयोगी एक भगवान के सिवाय दूसरी कोई और सत्ता मानता ही नहीं, ज्ञानयोगी ‘मैं’ और ‘मेरा’ का त्याग करता है। कर्मयोगी सब तू और तेरा है इस विचार को स्वीकार करता है। इसलिए ज्ञान योगी संसार के पदार्थ व क्रिया का त्याग करता है। कर्मयोगी पदार्थ और क्रिया को परमात्मा के अर्पण करता है हर पदार्थ और क्रिया को अपना ना मानकर परमात्मा का ही सब मानता है।
इसका यह मतलब नहीं कि तू सब कुछ मेरे अर्पण कर देगा तो मेरी कमी की पूर्ति हो जायेगी यह बात नहीं है, किन्तु सब कुछ अर्पण करने से तेरे पास कुछ नहीं रहेगा अर्थात मैं और मेरे का सब अहंकार खत्म हो जाएगा। ‘मैं’ ही बंधन का कारण है जब ‘मैं’ ही नहीं तो जन्म किसका होगा, परमात्मा किसी भी चीज से लिप्त नहीं होते इसलिए भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! सब कुछ मेरे अर्पण करने के फल स्वरूप तेरे को परमगति की प्राप्ति हो जाएगी।