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यान्ति देवव्रता देवान्पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
अर्थ सकाम भाव से देवताओं की उपासना करने वाले उन देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों की पूजा करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूतों की पूजा करने वाले भूतों को प्राप्त होतें हैं, परन्तु मेरे भक्त, जो मुझे पूजते हैं, वो मुझे ही प्राप्त होते हैं व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 25 भगवान कहते हैं कि जिस भाव में रहेगा उसी को प्राप्त होगा देवताओं को पूजने वाला देवताओं को प्राप्त होगा, पितरों को पूजने वाला मृत्यु के बाद पितरों को प्राप्त होगा, भूतों को पूजने वाला भूतों को प्राप्त होगा। मेरा योगी भक्त मुझकों ही प्राप्त होगा, परमात्मा को प्राप्त होने वाले योगी साधकों का दोबारा जन्म नहीं होता। वैसे तो सम्पूर्ण ब्रह्म में परमात्मा ही है, लेकिन जीव इस ब्रह्म में जैसा सोचता है (चिन्तन करना, विचार करना बार-बार भोगों को चाहना, बार-बार चाहना ही अपने मन में पूजन करना है)। कोई भी मनुष्य देवता की पूजा करता है उसके पूजा करने से परमात्मा उसी देवता के नाम से फल दे देते हैं। फल देने से उस मनुष्य की उसी देवता के प्रति श्रद्धा और बढ़ जाती है। श्रद्धा बढ़ने से वह उस देवता, पितर, या भूत का ही चिन्तन करता है, मृत्यु के समय भी वह उसी देवता या पितर का चिन्तन करता हुआ देह त्याग करता है वह जैसे विचारों में रहा पूरे जीवन उसकी उसी इच्छा को वह जीव प्राप्त हो जाता है। चाहे वह विचार देवता, पितर, भूत या परमात्मा किसी का हो, सम्पूर्ण ब्रह्म ही परम है तत्व से ना जानना ही अज्ञान है, अज्ञान से ही जन्म मरण है, ज्ञानी व्यक्ति का जन्म नहीं होता। आज सम्पूर्ण मानव जाति की सारी दौड़ परमात्मा को पाना चाहती है, परन्तु जीव संसार माया में पड़कर परमात्मा को भूल चुका है और उसको याद नहीं आ रहा कि यह तलाश किसकी है, अनजाने में मनुष्य उस आनंद को धन, वासना आदि में ढूंढ़ रहा है, मनुष्य को लगता है कि धन मिल जाये तो आनंद मिल जाएगा परन्तु अगर सम्पूर्ण पृथ्वी का धन एक ही व्यक्ति को मिल जाए तो भी तृप्ति नहीं होगी कारण कि आनंद भीतर है धन बाहर रह जाएगा, सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी मनुष्य को शांति नहीं मिलेगी कारण कि मनुष्य जो आनंद ढूंढ़ रहा है वह संसार के किसी भी भोग में नहीं, वह ढूंढ़ इसलिए रहा है कि उसकी माया के कारण स्मृति चली गई है। जैसे किसी मनुष्य को कभी सुख मिला थोड़ा बहुत फिर समय बदला वह सुख चला गया, जाना ही था कारण कि संसार का कोई सुख स्थाई नहीं क्षणभंगुर और नाशवान व असत्य है अगर किसी व्यक्ति को कभी छलक मिल भी जाए संसार में तो वह सुख जाने के बाद, वह सुख ही आगे के जीवन में दुःख बन जाता है, वही दुःख है कि पहले वाला सुख नहीं रहा और फिर उस सुख को याद कर-कर के वह दुःख मनाता रहता है, यहाँ कोई सुख स्थाई नहीं आज तक आपने जो आनंद लिए वह आनंद आज कहाँ है आपके पास, समय था क्षण में बदल गया आज उस सुख को प्राप्त करने के लिऐ आप फिर दौड़ रहे हो और अगर फिर भी कभी मिल भी गया तो, फिर क्षण में बदल जाएगा, इस लोक में कोई चीज स्थाई नहीं है, कारण कि जो आनंद परमात्मा में मिला था उस आनंद को मनुष्य बाहर ढूंढ़ रहा है वह आनंद बाहर नहीं मनुष्य के भीतर है जो सत् है वहाँ चित शांत है वहीं आनंद है इसलिए परमात्मा को सत चित आनंद कहा जाता है। मनुष्य का एक बार मन शांत हो जाए और वह अपनी आंखें बंद करके अपने आप से एक बार पूछ ले कि मैं क्या ढूंढ़ रहा हूँ, मैं क्यों भाग रहा हूँ, कहीं लोगों की दौड़ देखकर ही तो नहीं दौड़ रहा हूँ, क्या मैं प्राप्त करूंगा वही हमेशा स्थाई रहेगा, क्या वह मृत्यु के बाद भी हमेशा मेरे साथ रहेगा, बस अपने से यह सवाल करते रहें जवाब आपके भीतर से अपने आप मिलने शुरू हो जाएंगे। कृष्ण कहते हैं जिस-जिस का मनुष्य पूजन करता है उस-उस को प्राप्त होता है इस लिए जब भी चुनाव करें अंतिम का ही करें, परमात्मा कहते है मेरे भक्त जैसे भी पूजे अंत में मुझे ही प्राप्त होते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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