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अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।
अर्थ मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ, लेकिन वे मुझे तत्व से नहीं जानते, इसलिए वे विपरीत यज्ञ करते हैं, और उनका पतन होता है व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 24 सर्वयज्ञानाम् भोक्ता  यज्ञानाम् शब्द के अन्तर्गत सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्म आ जाते हैं, फिर भी इसके साथ ‘सर्व’ शब्द लगाने का तात्पर्य है कि शास्त्रीय, शारीरिक, व्यावहारिक आदि कोई भी भोग बाकी ना रहे, सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ परन्तु वे देवताओं को पूजने वाले मनुष्य मुझको (परम को) तत्व से (कण-कण में परमात्मा को देखना तत्व से जानना है) नहीं जानते इसी से उनका पतन होता है (आत्मा स्थिति से गिर जाना पतन होता है इसी पतन से जन्म मरण चलता रहता है) वास्तव में कर्मों के महाकर्त्ता परम प्रभु ही हैं और महाभोक्ता भी परम प्रभु ही हैं, परन्तु कर्त्ता भोक्ता होते हुए भी प्रभु निर्लिप्त है, इच्छापूर्ति के लिए कर्म करने वाले मन्दबुद्धि लोग देवताओं का पूजन करते हैं, देवताओं का पूजन करने वाले लोगों को पता नहीं तत्व से कि सम्पूर्ण ब्रह्म परम में ही रचा है, ना जानना तत्व से अज्ञान है इसी अज्ञान के कारण उनका पतन होता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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