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अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनारू पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
अर्थ जो अनन्य भाव से मेरा ही ध्यान करते हैं, उन भक्तों के लिए, जो सदैव मुझसे जुड़े हुए हैं, मैं उनका योग क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) संभालता हूँ व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 22 समयोग में स्थिर होकर आत्मा में युक्त होकर, अन्य किसी भी वस्तु, व्यक्ति स्वर्ग को ना चाहना हर क्षण परमात्मा में एकीभाव रहना, अन्य किसी को चिन्तन ना करना, एक परमेश्वर को चिन्तन करना अनन्य भक्ति होती है, भगवान कहते हैं कि मुझमें नित्य निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योग क्षेम मैं वहन करता हूँ। योग नाम भगवान के साथ सम्बन्ध बनने का है अर्थात आत्मा परम में युक्त हो जाना ही योग है, क्षेम नाम जीव के कल्याण का है और भगवत मार्ग पर चलते उसकी भगवान में श्रद्धा बनी रहे वह विचलित ना हो यानि हर प्रकार की रक्षा को ही क्षेम कहा जाता है। जो भगवान में नित्य निरन्तर युक्त है, उसको आत्म बोध करना योग है और उसकी भक्ति की रक्षा करना क्षेम है, वह सब भगवान अपने आप करते हैं भक्त के लिए, जैसे बच्चों का पालन माँ खुद करती है नौकरों से नहीं करवाती, जैसे योगियों को परमात्मा के ध्यान में आनंद आता है ऐसे भगवान को भी साधक के क्षेम (रक्षा) में आनंद आता है। कृष्ण कहते हैं निष्काम भाव से जो मुझे उपासते हैं, निष्काम साधना का अर्थ है जो किसी कारण से नहीं अकारण यानि कोई वजह नहीं बेवजह बस तुम्हारे पास होना काफी है। प्रार्थना भी कभी बिना कारण हो तो फूल बन जाती है, जब कभी मंदिर में जाओ तो आनंद में जाना बिना कारण जाना सारे कारण बाहर छोड़ जाना जहाँ तुम जूते छोड़ जाते हो, सब वासनाएं बाहर रख जाना। भीतर बिना कारण जाना, मंदिर में सिर्फ अपने आनंद के लिए जाएं भीतर जाकर आराम से शांत होकर चुपचाप बैठ जाएं, सिर्फ उसकी मौजूदगी को महसूस करें, भगवान से रत्तीभर भी मांग ना करें अगर भगवान कहे कुछ मांग लो तब आप भीतर खोजें, फिर भी मांग ना पाये और आपको कहना पड़े कि भीतर कोई मांग नहीं मैं मांगने में असमर्थ हूँ। जो निष्काम भाव से उपासना करते हैं कृष्ण कहते हैं उनका योग-क्षेम दोनों मैं संभाल लेता हूँ, भगवान कहते हैं जो मुझ पर छोड़ देता है उनको मैं संभाल लेता हूँ, जो मुझ पर नहीं छोड़ते वह खुद ही संभालता है। निष्काम भावना का अर्थ है परमात्मा कुछ भी दे रहा है चाहे सुख चाहे दुःख वह उसकी कृपा है मेरी कोई मांग नहीं, बस एक बार आपको परमात्मा का अनुभव हो जाए, जैसे आप कोई भी शब्द बोलोगे वह आपके अनुभव में आ जाता है, जैसे मैंने कहा हाथी तो अनुभव में हाथी आ गया। फिर मैंने कहा परमात्मा अब कोई अनुभव नहीं आया, शब्द ही खाली है वैसे लोगों को परमात्मा-परमात्मा सुनते-सुनते वहम पैदा हो गया कि मुझे अर्थ मालूम है, इसलिए पहले आप परमात्मा को छोड़ो पहले उपासना पर ध्यान दो, उपासना ही परमात्मा के अनुभव की चीज है। जैसे हम अंधे को कहें कि तुम प्रकाश की चिंता छोड़ो तुम आंख का इलाज करवाओ, आंख ठीक हुई तो प्रकाश अपने आप नजर आ जाएगा, उपासना आंख है जिस दिन आंख खुल जाएगी, उस दिन परमात्मा अपने आप प्रकट हो जाएंगे, निष्काम उपासना करने से परम की उपस्थिति का अनुभव होता है फिर वह दोबारा लौट कर दुःख रूपी संसार में नहीं आता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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