राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।
अर्थ यह तत्त्वज्ञान सभी विद्याओं का राजा है, और सभी गोपनीय विद्याओं का भी अधिपति है ।जो भी इसको सुनता है उसको ये पूर्ण रूप से शुद्ध कर देता है इसका फल प्रत्यक्ष होता है, और यह धर्मयुक्त भी है। यह अविनाशी और सुगम होने के साथ-साथ पवित्र और उत्तम भी है। हे परन्तप! जो इस धर्म की महिमा में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं होकर मृत्यु के संसार में फिर लौटते रहते हैं, अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र में बार-बार फिर जन्मते और मरते रहते हैं व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 2-3
यह तत्वज्ञान जितने भी ज्ञान के ग्रंथ है उन सबका राजा यानि ‘सबसे बड़ा ज्ञान है’, इस ज्ञान के साथ कर्म करने से व्यक्ति को पाप भी लिप्त नहीं करते हैं। क्योंकि यह बड़ा पवित्र और अच्छा फल देने वाला है, अपने स्वभाव में इस ज्ञान के साथ जीवन जिया जाये तो यह भगवत प्राप्ति में सबसे आसान (सरल) रास्ता है और यह ज्ञान सत्य है, इस ज्ञान का कभी अन्त नहीं होता। पूरी जीव जाति खत्म होने पर भी यह ज्ञान खत्म नहीं होता, दोबारा जीवों की उत्पत्ति होने पर यह ज्ञान मनुष्य को समता योग से दोबारा भीतर ही मिल जाता है, यह तत्वज्ञान अविनाशी है।
यह परम ज्ञान सनातन है, यह ना कभी पैदा हुआ और ना ही कभी इसका अंत होता है, इसलिए कृष्ण कहते हैं अर्जुन को कि तू इस ज्ञान को जान ले और इस ज्ञान को जानकर अगर तू युक्त हो जाएगा इस ज्ञान के साथ युक्त होने पर यह ज्ञान तुम्हारे लिए अविनाशी हो जाएगा।
कृष्ण कहते हैं जानकर इस ज्ञान पर चलेगा तो यह मोक्ष प्राप्त करने में सुगम है यानि बहुत आसान है, अगर इस ज्ञान को जानकर अभ्यास करेगा तो आसान है और अगर जानकर अभ्यास नहीं करेगा तो यह कठिन है।
आगे भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो श्रद्धा रहित है वह मुझको प्राप्त ना होकर जन्म-मरण में पड़ते हैं। जो परमात्मा में श्रद्धा ना रखकर संसार भोग में श्रद्धा रखता है, वह संसार के चक्र जन्म-मरण में ही बार-बार गिरता रहता है, अगर भोगों में श्रद्धा रखने वाला कोई संसारी व्यक्ति इस ज्ञान को सुन भी ले, समझ भी ले और मुझको प्राप्त करने की कोशिश भी करे तब भी मुझ तक नहीं पहुंच पाते। भगवान कहते हैं मुझ तक तो वही पहुंच पाते हैं जो श्रद्धा युक्त है।
परमात्मा तक पहुंचने का द्वार हृदय है अपने भीतर परमात्मा के प्रेम भाव हैं तो ही हम श्रद्धा युक्त हो सकते हैं, श्रद्धायुक्त हृदय का अर्थ है, भरोसा करने वाला हृदय।
ध्यान रहे श्रद्धा करके भूल भी हो जाये तो भी हानि नहीं और अश्रद्धा करके लाभ भी हो जाये तो भी हानि ही है। कृष्ण कहते हैं श्रद्धा रहित होकर मुझ तक कोई नहीं पहुंच पाता और जो मुझ तक नहीं पहंुचता वह जन्म-मृत्यु के पहिये में चक्कर लगाता रहता है।
हमारी आज की पीढ़ी पूछती है परमात्मा कहाँ है, मैं उनसे एक ही बात पूछता हूँ कि पहले यह बताएं आपके भीतर श्रद्धा कहाँ है, जब भीतर श्रद्धा होगी परमात्मा के प्रति, तब परमात्मा अपने आप नजर आ जाएंगे।
यह श्रद्धा शब्द कृष्ण का बहुत गहरा है, इस बात पर हम थोड़ा विस्तार से बात करते हैं। जैसे हम चुंबक को रख देते हैं तो उसके आस-पास के लोहे के टुकड़े अपने आप खिंचे चले आते हैं, परन्तु उन दोनों के बीच का जो खिचाव है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता, खिंचते हुये लोहे के टुकड़े दिखाई पड़ते हैं वह जो बीच में शक्ति है अदृश्य में वह दिखाई नहीं पड़ती, उस खिंचाव का नाम आकर्षण है, यह पहला आकर्षण खिंचाव का पदार्थ में है, यह धन, दौलत, पद सब खिंचते हैं मनुष्य को, जो आज बड़े-बड़े राज नेता आपको दिखाई पड़ रहे हैं और जो धन के पीछे दौड़ रहे हैं वह सब पदार्थ के आकर्षण के खिंचाव में दौड़ रहे हैं दूसरा आकर्षण हम देखें तो हमें स्त्री और पुरूष में दिखाई पड़ता है। कोई भी पुरूष को या कोई भी स्त्री को जो शरीर सुन्दरता का आकर्षण दिखाई पड़ता है वह शरीरों के यौन का आकर्षण है, वैसे तो अग्नि का ही दूसरा रूप यौन है। पहला पदार्थ का आकर्षण है, दूसरा शरीरों का आकर्षण होता है और जब इन दोनों से ऊपर उठें तो, दो मनों के बीच भी आकर्षण होता है वह आकर्षण प्रेम है।
लेकिन ना हम जमीन के आकर्षण को देख सकते हैं और ना यौन के आकर्षण को देख सकते हैं, परन्तु देख नहीं सकते लेकिन अनुभव कर सकते हैं, वैसे ही हम प्रेम के आकर्षण को देख नहीं सकते अनुभव कर सकते हैं।
यह तीनों आकर्षण सामान्य आकर्षण है लेकिन जब दो आत्माओ के बीच आकर्षण होता है उसका नाम श्रद्धा है यह चौथा आकर्षण है यह सबसे परम आकर्षण है।
कोई व्यक्ति रूपये कमाने में जी रहा है, वह पहले आकर्षण में जी रहा है, लोभी के हाथ में धन आते ही उसको इतना आंनद आता है कि पूछो ही मत। यह पदार्थ का आकर्षण है अभी तक यह यौन के आकर्षण से नीचा है, परन्तु जो धन के पीछे भागते है, यह यौन के आकर्षण को छोड़ कर, धन के पीछे भागने से अपने को बड़ा समझता है लेकिन यह बड़ा होता नहीं अभी योन के आकर्षण से नीचा है क्योंकि यह पदार्थ के आकर्षण में है, यह अपने मन में सोचते हैं कि हम बड़ी ऊंचाई का काम कर रहे हैं, लेकिन हकीकत तो यह है कि यह यौन के आकर्षण से भी नीचे गिर रहे हैं वे बिल्कुल ही स्थूल निर्जीव आकर्षण में पड़ रहे हैं।
धन, पद का आकर्षण वैसा ही आकर्षण है, जैसे चुंबक के पास लोहा खिंचता है, एक बात आप ध्यान रखना कि अगर तुम धन के पीछे भाग रहे हो तो अपने को चुंबक ना समझ लेना क्योंकि चुंबक कभी खिंचती नहीं लोहा ही खिंचता है चुंबक की तरफ, धन आप की तरफ नहीं खिंच रहा है, धन चुंबक होता है और आप उसकी तरफ खिंचने वाले लोहा होते हैं। और जो यौन के आकर्षण में पड़े हैं वह प्रेम के आकर्षण से नीचे है यौन का आकर्षण शरीर भोग का आकर्षण है, यह ऊपरी है यह हड्डियों के कंकाल का ही आकर्षण है, यह शरीर के आकर्षण को भी अज्ञान से प्रेम कहते है, प्रेम आकर्षण इस से ऊपर है यानि वह आकर्षण शरीर का नहीं वह भीतरी आकर्षण है दो मनों का आकर्षण है, शरीर का आकर्षण संभोग तक का है, मन के आकर्षण में प्रेम है इस आकर्षण में शरीर को पाने का खिंचाव नहीं होता, बस दो मनो का एक-दूसरे के प्रति खिंचाव होता है, प्रेम का आकर्षण शरीर के आकर्षण से बड़ा होता है, और प्रेम से बड़ा आकर्षण श्रद्धा का होता है, यह दो आत्माओं का आकर्षण है, यह सबसे परम आकर्षण, इसमें कुछ पाने का खिंचाव नहीं होता इसमें तो सब कुछ छोड़ देने का भाव होता है जो अपने आप को सम्पूर्ण श्रद्धा से भगवान या गुरू को समर्पण कर देता है वह दोबारा लौट कर संसार में नहीं आता, इसलिए कृष्ण कहते है कि इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा ना रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त ना होकर मृत्यु रूप संसार के मार्ग पर लौटते रहते हैं यानि इस संसार में ही जन्मते मरते रहते हैं।