तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चौव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।
अमृतं चौव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।
अर्थ हे अर्जुन! मैं सूर्य रूप में संसार के हित के लिए तपता हूँ, जल को उद्धरण करता हूँ और फिर वह जल मैं ही वर्षा के रूप में वापस भेजता हूँ। अमृत और मृत्यु, सत्य और असत्य भी मैं ही हूँ, क्योंकि मेरा रूप सबकुछ धारण करता है व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 19
प्रभु ही सूर्य रूप में तप रहे हैं सूर्य के तप से जलाशय भाग को ग्रहण करके उस जल को शुद्ध तथा मीठा बनाकर समय आने पर वर्षा रूप से मानव और औषधियों के हित के लिए बरसा देता हूँ। मानव को जीवित रहने के लिए जो प्राण है वह अमृत है और सब प्राणियों के देह का त्याग होता है वह मृत्यु भी मैं ही हूँ। और सम्पूर्ण संसार असत् है, और सर्वत्र व्याप्त प्रभु ही सत्य है।
हम पूरे को कभी भी नहीं देख पाते, परम तो बहुत बड़ा है, हम एक छोटी-सी कंकर को भी कभी पूरा नहीं देख सकते एक बार में आधा ही देख सकते हैं, आप हथेली पर एक कंकर रखो जो ऊपर की साईड होगा वह दिखाई देगा दूसरी साईड छिपा रहेगा और दूसरी साईड देखोगे तो पहली साईड घुमाना पड़ेगा फिर पहली साईड छिप जाएगा, हम पूरे को एक साथ कभी भी नहीं देख पाते, कंकर को भी नहीं देख पाते तो परम को देखना बहुत बड़ी बात हैं। अगर आप पूरे को देख पाये तो यहाँ कोई चीज दो नहीं है, एक ही विराट के रूप हैं। जैसे राम और रावण अलग-अलग नहीं है अगर राम के जीवन से रावण को हटा दो तो राम का कोई वजूद, कहानी नहीं रह जाती और रावण के जीवन में से राम को हटा दो तो भी रावण की कोई पहचान नहीं रह जाती, राम और रावण दो नहीं एक ही परम सागर पर उठी हुई लहर है, हम पूरी लीला कभी जान नहीं पाते इसलिए हमें अलग-अलग दिखाई देते हैं, कृष्ण कहते सबमें मैं एक हूँ।
हम आग और जल को अलग-अलग मानते हैं, अगर आग लगी तो हम जल से बुजा देते हैं, कृष्ण कहते हैं मैं ही आग हूँ मैं ही जल हूँ, मैं ही जलता हूँ मैं ही बुझता हूँ, मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ और मैं ही वर्षा करता हूँ।
सूर्य ही खींचता है सागर से पानी को, सूर्य ही बनाता है बादल को और सूर्य ही वर्षा करता है, आग और पानी हमें अलग दिखते हैं, अलग है नहीं।
जन्म-मृत्यु, राम-रावण, फूल-कांटे, सुबह-शाम, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, रूप-करूप, सत्-असत् आदि कृष्ण कहते मैं ही हूँ, सब एक ही है जवानी-बुढापा अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, जीवन-मृत्यु भी अलग-अलग नहीं दो छोर है, बीज और वृक्ष में ही अगला बीज है, कृष्ण कहते हैं मैं ही हूँ।