गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
अर्थ गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृद, प्रभव, प्रलय, स्थान, निधान, अविनाशी बीज - ये सभी मेरे ही विभिन्न गुण और धर्म हैं व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 18
गति प्राणियों के लिए सबसे सर्वाेपरि तत्व है प्राणों की गति और जो प्राणों में गति है वह ईश्वर ही है। गति भगवान की हर लीला में है जैसे नाड़ियों में खून की गति है, सांसों में गति है और हवा में गति है, पानी की नदी नालों में गति (चलायमान) जीवन का हर पल बदलने में गति है, पृथ्वी की हर चीज जो प्रभु से उत्पन्न हुई है उसमें और पृथ्वी की चौबीस घण्टे में अपनी धुरी पर चक्र लगाने की गति व तीन सौ पैंसठ दिन में सूर्य के चक्कर लगाने में गति है। इसलिए मानव को भी अच्छे कर्म करके जीवन में गति रखनी चाहिए।
भर्ता सबका पालन पोषन करने वाला भर्ता होता है। प्रभु सब का पालन पोषण करते हैं। चाहे कोई जगलों में पड़ा हुआ पशु है, चाहे इस धरती पर मानव है। चाहे आकाश में उड़ने वाला पक्षी है और चाहे धरती की कितनी भी गहराई में रहने वाला कीड़ा है और चाहे सागर में रहने वाला मगर या मछली है जो जहां है उनको उसी स्थान पर भगवान खाना पीना सब पालन पोषण करते हैं।
प्रभु इस सम्पूर्ण भू मण्डल को बनाने वाला परमात्मा यानि परम-भू ही प्रभु होते हैं।
साक्षी- सबके कर्मों को देखने वाला साक्षी होता है, यानि दृष्टा देखने वाला निवास इस सम्पूर्ण ब्रह्म में ही सारी प्रकृति रूचि है सम्पूर्ण ब्रह्म के मानव प्रभु में ही निवास करते हैं। उसे ही आश्रय लेना कहते हैं और जिसका आश्रय लिया जाता है वह भी प्रभु ही है जिसकी हम सब शरण में है वही हमारा सुहृद यानि हितैषी है।
भगवान कह रहे है सम्पूर्ण संसार मेरे से ही उत्पन्न होकर मेरे में ही वापिस लीन होता है यानि विनाश होता है। विनाश होने पर भी सम्पूर्ण संसार मेरे में ही रहता है इसलिए मैं संसार का स्थान हूँ। जितना भी संसार देखने में आता है उसका चाहे विनाश हो चाहे प्रलय हो वह सब मेरे में ही रहता है इसलिए मैं निधान हूँ। संसार की हर वस्तु मनुष्य के लिए नाशवान होती हैं चाहे आज दुनिया की सबसे बड़ी इमारत हो चाहे धन, घर, जमीन, परिवार सबके सब नाशवान है इमारतें एक समय के बाद गिर जाती हैं और संसार में जितना भी मानव धन इक्कठा करता है वह व्यक्ति के लिए शरीर खत्म होने के साथ ही सम्पूर्ण इक्कट्ठा धन खत्म हो जाता है सब संसार की माया असत्य है और जो कभी नाश नहीं होता वह सब जीव भूतों का आत्मा अविनाशी है वह अविनाशी बीज जिससे सम्पूर्ण संसार चलायमान है वह बीज यानि सबको उत्पन्न करने वाला और प्रलय करने वाला, कृष्ण कहते हैं मैं ही हूँ।
कृष्ण कह रहे हैं तू गौर से देख ऊपर-नीचे सब दिशाओं में मुझे छाया हुआ पायेगा, हे अर्जुन तू अपने अहंकार की मलकियत को छोड़ यह अहंकार ही तेरा दुःख और पाप है। अर्जुन ने कहा था कि मैं इन सब को मारूंगा तो मुझको पाप लगेगा तब कृष्ण कहते हैं तू अपने ’मैं’ के अहंकार को छोड़कर चारों तरफ देख तू सिर्फ एक लहर है, तू एक क्षण पहले उठा और एक क्षण में खो जाऐगा मैं सागर हूँ तू मेरे में ही उठा है मैं सबका आधार हूँ, सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वासस्थन सबको मैंने संभाला है यह सब मुझमें ही जन्मते और मरते हैं, सबका अंतिम बीज कारण मैं हूँ, तू अपने को बीच में मत ला, बनाया मैंने, संभाला मैंने, मिटाऊंगा भी मैं, ना तू अपनी मर्जी से जन्मा ना ही मर्जी से मरेगा।
सच ही कह रहे हैं कृष्ण कि जब हमारा जन्म हुआ वह अपनी मर्जी से नहीं हुआ, हमें तो जब होश आया तब तो हम हो चुके थे यह घर परिवार जीवन हमने तय नहीं किया और ना ही मनुष्य अपनी चाहत से जी पाता है, और मृत्यु का कुछ पता नहीं कब आ जाए, मैंने एक शब्द लिखा अगला लिख पाऊंगा या नहीं या आपने एक शब्द पढा अगला पढ पाओगे या नहीं, हम एक सांस छोड़ते हैं अगली सांस भीतर जाएगी या नहीं किसी को भी पता नहीं एक क्षण बाद क्या होगा, सब कुछ बनाने मिटाने वाले एक परमात्मा है। कृष्ण कहते हैं तू यह सब छोड़ और मेरे लिए कर्म कर।