अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।
अर्थ मैं ही क्रतु हूँ (वैदिक कर्मकाण्ड), मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही स्वधा हूँ, मैं ही औषधि हूँ। मंत्र भी मैं हूँ, घी भी मैं हूँ, अग्नि भी मैं हूँ, हवन भी मैं हूँ व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 16
भगवान कण कण में है जो हवन कर रहा है मानव, उसमें भी भगवान आत्म रूप से व्याप्त है, और यज्ञ मैं हूँ। स्वधा मैं हूँ (अन अपर्ण) औषधि मैं हूँ। मन्त्र जो बोले जाते हैं वह शब्द (आकाश में जितनी भी ध्वनि है आवाज है) वह भगवान कह रहे हैं कि मैं ही हूँ। धृत मैं हूँ। अर्थात जो हवन की अग्नि में घी डाल रहे हैं वह भी प्रभु है उदाहरण घी दूध से निकला है दूध गाय से निकला है गाय ने चारा खाया उससे दूध बना है। चारा पृथ्वी की कोख से निकला है, पृथ्वी पर जितनी भी औषधियां है वह चन्द्रमा के शीतल प्रकाश से उत्पन्न होकर पृथ्वी पर ग्रोथ करती है और जो चन्द्रमा का प्रकाश है वह सूर्य का तेज पृथ्वी से टकराकर चन्द्रमा पर पड़ता है और जो सूर्य का तेज है वह परमात्मा का ही तेज है। और वैसे देखा जाए कण कण में ईश्वर है तो वह घी में भी है इसलिए भगवान कहते है कि धृत भी मैं हूँ। अग्नि भी मैं हूँ अब आप अपने चारों और देखें कि अग्नि कहीं नजर नहीं आ रही फिर भी हमारे चारों और अग्नि है। आप अभी तीली जलाओं अग्नि प्रकट हो जायेगी और तीली के बुझते ही अदृश्य हो जाएगी। अग्नि हमें दिखाई नहीं देती अदृश्य रूप में सब जगह है यह प्रभु की लीला है यह हर जगह में प्रकट होती है यह भी परम है और जितनी भी हवन (यज्ञ) की क्रिया है उन सब में परमात्मा ही अदृश्य रूप में है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि एक तो ज्ञान योगी ज्ञान विवेक द्वारा मेरी भक्ति करते हैं और दूसरा अपने से अलग किसी देवता की भक्ति करता है (दूसरा भी भक्ति मेरी ही करता है क्योंकि सब पदार्थों में मैं ही हूँ) चाहे यज्ञ हो तो यज्ञ की अग्नि में भी मैं हूँ, चाहे पित्तर के नियत किये जाने वाला अन्न हो और चाहे घी हो सब के भीतर मैं ही हूँ। कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन वनस्पति, फूल, पूजा, हवन क्रिया सब मैं हूँ, तुम किसी मार्ग से आ जाओ सब रास्ते मेरे पास ही आते हैं, बस शर्त एक ही है कि नित्य-निरंतर मेरा स्मरण रखना तू मुझको ही प्राप्त होगा।