मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चौव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।
राक्षसीमासुरीं चौव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।
अर्थ जो असुरी और राक्षसी प्रकृति का आश्रय लेकर अविवेकी होते हैं, इस मोहित अवस्था में उनकी सम्पूर्ण आशाएं व्यर्थ होती हैं। सम्पूर्ण कर्म और ज्ञान भी व्यर्थ होते हैं, क्योंकि उन्हें सही मार्ग और सत्य का ज्ञान नहीं होता व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 12
व्यर्थ आशारू भविष्य के आकर्षण का नाम आशा है हमारे जीने की प्रेरणा कहाँ से आती है, भूतकाल तो दुःखों की एक लम्बी कथा है, अगर अतीत के सहारे मनुष्य को जीना पड़े तो, उसी क्षण वह गिर जाएगा, अतीत पीछे से धक्का नहीं देता, यह खिंचाव आगे से आता है, भविष्य हमें खिंचता है, जो कल नहीं हुआ वह आने वाले कल में हो जाएगा, इस संभावना का जो सपना है वह हमें जिन्दा रखता है यह आशा हमें खिंचती चली जाती है, आशा के वश में हम जीते चले जाते हैं। आदमी ने आशा की भविष्य की, उस भविष्य को आज हमने अतीत बना लिया है, वह भी कल भविष्य था आज का दिन बीत गया वह भी अतीत हो गया।
हर रोज भविष्य अतीत होता चला जाता है, हर रोज समय बीत जाता है और अतीत हो जाता है, हम कभी यह नहीं सोचते कि जिसे हम आज अतीत कह रहे हैं वह भी कभी भविष्य था, उसमें भी हमने आशा के बहुत बीज बोये थे आज एक भी फूल नहीं खिला जो भूल हमने कल की थी वही भूल हम आज भी करते हैं, वही भूल हम कल भी करेंगे, ऐसे करते-करते मौत आ जायेगी, लेकिन हमारी भूल नहीं बदलेगी, बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो लौटकर देख ले कि मैं चालीस साल-जी लिया, कौन-सी आशा पूरी हुई, मैंने जो भी चाहा था, जो आशा लेकर यात्रा पर निकला था, वह आज कहाँ है, फिर भी हम उन्हीं आशा के साथ बंधे चले जा रहे है।
हमने जो भी चाहा वह कभी मिला नहीं, यह ना समझें कि मुझको नहीं मिला यह किसी को भी नहीं मिला आज तक।
हम जो भी सुख चाहते हैं वह दूसरे से ही चाहते हैं औैर आज तक पृथ्वी पर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसको दूसरों से सुख मिला हो, सुख जब भी मिलता है तब अपने भीतर ही मिलता है, जब जब मैंने दूसरे से सुख पाने कि कोशिश की तब-तब दुःख ही मिला है, लेकिन हम सब दूसरों से सुख चाह रहे हैं और दूसरे बदल जाते हैं, लेकिन दूसरों से सुख चाहने कि आशा नहीं बदलती, दुसरों से सुख प्राप्त करना ठीक वैसे ही है जैसे कोई रेत से तेल निकालना चाहे और ना निकले तो इसमें रेत का कसूर नहीं क्योंकि रेत में तेल है ही नहीं, ऐसे ही दूसरे में सुख है ही नहीं, दुसरे से सुख नहीं दुःख ही मिल सकता है वहाँ सुख चाहना व्यर्थ आशा है, दूसरे से भी दुःख हमें तभी मिलता है कि हमने उससे सुख चाहा था।
लोग धन प्राप्त करके भी सुख चाहते हैं, धन कमाने पर भी धन भीतर नहीं जाएगा, धन बाहर रह जाएगा अगर धन कमा लिया तो भी जीवन गंवा दिया, धन का ढेर लग जाएगा और आप भीतर खाली रह जाओगे, सब व्यर्थ आशा करते हैं।
व्यर्थ कर्म- अहंकार के लिए हम कितने भी कर्म करते रहें, हम अपने जीवन में निन्यानवे प्रतिशत कर्म ऐसे करते हैं, जिससे अपना अहंकार मजबूत होता है और आदमी के कर्म अधिकतर कर्म वह है कि वह यह दिखाना चाहता है चाहे घर बनाये चाहे गाड़ी खरीदे सब कर्मों की दौड़ यह दिखाने की है कि मैं हूँ और मैं साधारण नहीं हूँ इस मैं को मजबूत करने के लिए हम अपना जीवन गवा देते हैं, एक आदमी घर बड़ा इसलिए बनाता है कि दूसरे को छोटा दिखा सके, मान लेते हैं आपने दूसरे से बड़ा घर बनाकर दूसरे को छोटा दिखा दिया फिर क्या हो गया, कुछ भी नहीं होता फिर भी आप ऐसे व्यर्थ कर्म करते चले जाते हो, क्यों किए चले जाते है यह इसलिए कि भीतर की बेहोशी एक मूर्च्छा, एक निंद्रा पकड़े हुए है, कल भी किया था आज भी कर रहे हो और कल भी करोगे, जीवन भर के व्यर्थ कर्मों का अनुपात जोड़ो तो पता चलेगा पूरा जीवन व्यर्थ कर्मों में गवा दिया।
एक बच्चा बाप के पास टेबल पर खड़े होकर कहता है कि मैं आपसे बड़ा हो गया, बड़ा मकान बनाने से, आप पड़ोसी से बड़े होते तो जो छिपकली आपकी छत पर चल रही है वह आपसे बड़ी हो गई।
व्यर्थ ज्ञान- जो ज्ञान आपके काम ना आये वह व्यर्थ है और हम सबके पास ऐसा-ऐसा ज्ञान है, जो कभी काम खुद के नहीं आता, दुनिया में ज्ञान की कोई कमी नहीं है शायद जरूरत से ज्यादा है, इसलिए हर कोई बांटता रहता है, इस दुनिया में जितने मुक्त होकर ज्ञान बांटते है और कोई चीज ऐसे नहीं बांटते, लेकिन यह बात और है कि कोई लेता नहीं आपके ज्ञान को फिर भी आप बांटते चले जाते हो, क्योंकि लेता कोई ज्ञान को इसलिए नहीं कि उनके पास आपसे भी ज्यादा है।
यह ज्ञान जो आप बांटते फिरते हो लोगों को यह आपके कभी काम आया है क्या, इसका कभी आपने उपयोग किया है क्या, यह ज्ञान कभी आपका हिस्सा बना है क्या, यह ज्ञान कभी आपके हृदय में धड़का है क्या या फिर कोरे शब्द हैं जो आपके भीतर गूंजते रहते हैं यह सिर्फ आपके भीतर रिकॉर्ड है। यह आपका ज्ञान रिकॉर्डिंग है जो डाल दिया गया हैं आपके भीतर, जिस ज्ञान से आप खुद को ना बदल सकें, आपके खुद के काम ना आए, वह ज्ञान इस दुनिया के कभी काम ना आ सकेगा।
ज्ञान का अर्थ है जिसे जानने में खुद में रूपांतरण हो कि ज्ञान जानु और बदल जाऊँ और ज्ञान को जानकर बदलू ना वह व्यर्थ ज्ञान है।
आप गीता पढ़े और बदलें ना वही के वही व्यक्ति रहें जो गीता पढ़ने से पहले थे, तो इस गीता के साथ जो आपकी मेहनत हुई वह व्यर्थ हो गई।
लोग तीस साल से गीता पढ रहे हैं हर रोज सत्संग कर रहे हैं लेकिन खुद इस ज्ञान का आचरण नहीं करते पढते-पढते रट्टा इतना मार लिया है कि अब क्या करें फिर वह उस ज्ञान से दूसरे को ज्ञानी बनाते फिरते हैं।
कृष्ण कहते है यह व्यर्थ ज्ञान है ऐसा ज्ञानी मूढ है। व्यर्थ के ज्ञान को अपने भीतर ना जाने दें क्योंकि भीतर कचरा भरने का स्थान नहीं।
लोग कहते हैं ज्ञान बताओ, जब उनको बतातें हैं तो वह सीखने की जगह खुद ही सिखाने लग जाते हैं, वह कहते हैं ज्ञान तो बहुत है। तब मैं उनको कहता हूँ अगर जो ज्ञान है उससे आपकी जिन्दगी बदल तो गई है आप उसमें जीओ अगर नहीं समझ आया पहले का ज्ञान तो उनको कचरा समझ कर भीतर से साफ करदो, लोग अपना कचरा साफ भी नहीं करना चाहते, और भी ज्ञान लेना चाहते हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं यह सब व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान है।