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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।
अर्थ हे कुन्तीपुत्र! मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर सहित सम्पूर्ण जगत की रचना करती है। इसी कारण संसार में परिवर्तन होता है। व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 10 कृष्ण कहते हैं प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चर-अचर सहित सम्पूर्ण जगत की रचना करती है। परमात्मा ही प्रकृति को अधीन करके इस सम्पूर्ण जगत को बार-बार रचते और मिटाते हैं यही परम की लीला है। कृष्ण ने कहा है मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण जगत की रचना होती है इस सूत्र को आइऐ अच्छे से जानते हैं। परमात्मा की जहाँ मौजूदगी होती है, वहाँ परमात्मा की मौजूदगी से ही प्रकृति जगत को रच लेती है, जैसे सूर्य निकलता है और फूल खिल जाते हैं, ऐसा तो नहीं कि सूर्य एक-एक फूल को पकड़-पकड़  कर खिलाता है, बस सूर्य तो निकलता है बस उसकी मौजूदगी से फूल खिल जाते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं, सूर्य की किरणों की मौजूदगी काफी है कि हवा में ऑक्सीजन बढ जाती है और उसकी मौजूदगी से नींद टूट जाती है और आप उठ जाते हो। अगर आप शांत स्थिर होकर देखते हो तो सब जगह परमात्मा एक सर्जन का प्रवाह है और जहाँ भी परमात्मा की मौजूदगी है वहीं अंनत-अंनत रूपों में सर्जन होने लगता है फूल खिल उठते हैं, गीत का जन्म होने लगता है। जहाँ भी कुछ जन्म रहा हो जैसे कहीं फूल ही जन्म रहा हो, वहाँ मौन होकर बैठ जाना, अगर एक कली फूल बन रही हो उस जगह शांत होकर सर्जन होती प्रकृति को महसूस करना, उस फूल को तोड़कर मंदिर की तरफ मत भागना कि फूल को मंदिर में चढाऊंगा, जहाँ भी कोई चीज पैदा हो रही हो, चाहे सुबह का जन्म हो रहा हो या सांझ डूब रही हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो और सुबह आ रही हो, वहाँ रूक जाना, वहाँ शांत होकर बैठ जाना और उस शून्य के साथ युक्त हो जाना वहीं आपको परमात्मा की उपस्थिति अनुभव हो जाएगी। जैसे सूरज की मौजूदगी से फूल अपने आप खिल उठते हैं, कृष्ण कहते हैं ऐसे ही मेरी उपस्थिति से चर-अचर जगत की रचना हो जाती है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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