श्री भगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
अर्थ श्री भगवान बोले, "मैं तुझसे इस अत्यन्त गोपनीय रहस्य को जो ज्ञान ओर् विज्ञान से परिपूर्ण है इसको फिर अच्छे से कहूंगा । जिसको जानकर तू इस भौतिक संसार के समस्त अशुभ (जनम -मरण ) से मुक्त हो जाएगा व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 1
हम जब भी किसी व्यक्ति को देखते हैं तब या तो हम उसकी अच्छाई को देखते हैं या उसकी बुराई को देखते हैं, हम उसकी जिस बात पर ध्यान देते हैं वह वैसा ही नजर आने लग जाता है हमें वह वैसा ही दिखाई पड़ता है। जैसे आप अपने कमरे की खिड़की से आकाश देखते हो तो आपका ध्यान चांद पर चला जाता है, और खिड़की भूल जाते हो यानि खिड़की हट जाती है और जब आप खिड़की को देखते हो तो चांद हट जाता है, जब भी हम कुछ देखते हैं, तो हम जिस बात पर ध्यान देते हैं हमें वही दृश्य दिखाई देता है। कृष्ण कहते हैं तुझ दोष दृष्टि रहित के लिए मैं परम गोपनीय ज्ञान अच्छी प्रकार कहूंगा, दोष दृष्टि रहित शिष्य से ही रहस्य की बात कही जा सकती है, अगर शिष्य की दोष दृष्टि हो और उसको ज्ञान समझाऐं, तो ज्ञान उसको सुनाई भी नहीं देगा, कारण कि जब भी गुरू ज्ञान के शब्द बोलेगा उसका ध्यान और ही विचारों में चल रहा होगा, उसको शब्द सुनाई भी नहीं पड़ेंगे, दोष दृष्टि सहित शिष्य को अगर गुरू ज्ञान दे तो गुरू कहेगा कुछ और ही, शिष्य समझेगा कुछ और ही, वह सुन ही नहीं पायेगा।
इसलिए कृष्ण ने अध्याय आठ तक अर्जुन के सवालों को काटा ताकि उसकी दोष दृष्टि हट जाये, दोष दृष्टि होने के कारण अर्जुन सवाल करता रहा, वह युद्ध से भाग जाना चाहता था, इसलिए वह ऐसे-ऐसे प्रश्न कर रहा था कि कृष्ण अपनी ही कही बातों में फंस जाए और मैं युद्ध से हट जाऊँ। इसलिए कृष्ण अर्जुन के हर प्रश्न को काटते गए ताकि बुद्धि हट जाये और हृदय उभर आए बुद्धि जब तक काम करती है, तब तक हृदय विश्राम करता है और जब बुद्धि विश्राम पर जाती है, तो हृदय सक्रिय हो जाता है और कृष्ण को पता है कि परम रहस्य हमेशा हृदय से ही जाने जा सकते हैं, क्योंकि हृदय निकट आता है तब बुद्धि दूर चली जाती है।
कृष्ण ने आठ अध्याय तक अर्जुन की बुद्धि को थकाया ताकि अर्जुन की दोष दृष्टि हट जाये और आठ अध्याय में कृष्ण को लगा कि अब अर्जुन की दोष दृष्टि हट गई, अब इसको हृदय से ज्ञान देने की जरूरत है।
जब आपके भीतर संदेह होता है तो वह सदा आपके चेहरे पर भी दिखाई पड़ता है, आपकी आंखों से भी संदेह झलकता है, आपके शरीर के रोम-रोम में संदेह भरा दिखाई देता है कृष्ण ने अर्जुन को देखा अब वह लगभग स्थिर हो चुका है तब कृष्ण ने अर्जुन को कहा मैं तुझ दोष दृष्टि रहित को वह परम ज्ञान दूंगा जिसको जानकर तू इस दुःख रूपी संसार से मुक्त हो जाएगा।
आप समझें इस बात को जो कृष्ण ने बहुत गहरी बात कही है, लोग सोचते हैं गीता को सुनकर ज्ञान हो जाएगा इतना सस्ता अगर ज्ञान होता तो आज संसार में कोई अज्ञानी नहीं बचता। कृष्ण गहरी बात कर रहें हैं सुनकर नहीं उस ज्ञान को जानकर जन्म-मरण से मुक्त हो जाएगा।
लेकिन आप सुनने को ही अपना मानने लग जाते हो आप शब्दों से सुनने को ज्ञान मानते हो, अखबार पढ लिया गीता पढ ली, आप अपने को ज्ञानी मानने लगते हो, स्मृति ज्ञान नहीं है सारा संसार स्मृति को ज्ञान मानता है, सब लोग कंठस्थ करके रखते हैं ज्ञान को, लोगों ने ज्ञान को कंठस्थ कर रखा है पंड़ित की तरह, बहुत पंडित है जिनको गीता कंठस्थ याद है, वेद शास्त्र कंठस्थ याद है, कुछ लोगों ने ज्ञान का इतना रट्टा मार रखा है बहुत सालों से ज्ञान का पाठ कर रहें हैं, लेकिन वह कंठ का ज्ञान बहुत ऊपरी हिस्सा है, लेकिन जानना भीतर हृदय से होता है, स्मृति जानने का अर्थ नहीं, जानने का अर्थ है अनुभव। कृष्ण कहते हैं जो मैं तुझे रहस्य बताऊंगा उसे तू जान ले यानि उसको तू भीतर से अनुभव कर ले तो दुःख रूपी संसार से मुक्त हो जाएगा।