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अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।
अर्थ अगर कोई बहुत दुराचारी हो, परन्तु यदि वह मुझे अनन्य भाव से भजता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसने मुझको प्राप्त करने का निश्चय कर लिया है। हे कुन्तीपुत्र! ऐसा व्यक्ति तत्काल ही परिपूर्ण धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त होता है। तुम अवश्य ही ये प्रतिज्ञा करो कि मेरा भक्त कभी पतन को प्राप्त नहीं होता व्याख्यागीता अध्याय 9 का श्लोक 30-31 अनन्य भक्त अर्थ है सब जगह एक परमात्मा को ही देखना जहाँ भी आपके भाव दौड़े वहीं परमात्मा को जोड़ लें, जहाँ-जहाँ भी आपके विचार जाते हैं उन सबमें परमात्मा को देखने लग जाएं, आप अपनी पत्नी को देखते हो तो उसमें भी आपको परमात्मा नजर आये, आप अपने बच्चे को देखो तो भी उनमें भी आपको परमात्मा नजर आये। जहाँ भी आपके विचार जाते हो वहीं परमात्मा आपको दिखे। आप पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, नदियां, पहाड़, झरने कुछ भी देखें अन्य कुछ भी ना दिखे, सब परमात्मा के ही रूप नजर आये आप कुछ भी कार्य करें सबके भीतर जो छिपा है उस के सिवा किसी और के बारे में विचार ना करना सबमें एक परमात्मा को ही देखना, अनन्य भक्ति होता है, बस निरन्तर एक याद उसकी आपके भीतर बनी रहे। जैसे आपने माँ को देखा होगा कि वह कुछ भी कार्य करे उसका कार्य के साथ पूरा ध्यान यह भी रहता है कि बच्चा कहाँ खेल रहा है, कहीं गिर ना जाये कहीं बाहर गली में ना निकल जाये। माँ कुछ भी काम कर रही हो चाहे खाना बना रही हो चाहे सफाई कर रही हो या किसी से बात कर रही हो, माँ का पूरा ध्यान काम के साथ बच्चे पर रहता है, अगर माँ सो रही हो नींद गहरी हो आकाश में चाहे बादल बिजली कड़कड़ा रही हो उसकी आंख नहीं खुलेगी लेकिन बच्चा थोड़ा-सा भी करवट लेता है या छोटी-सी बच्चे कोे छींक भी आ जाए, माँ की आंख तुरन्त खुल जाती है यानि माँ का पूरा ध्यान नींद में भी बच्चे पर रहता है। अगर यह माँ बच्चे में परमात्मा देखने लग जाये, तो वह माँ अपने बच्चे को भी पाल रही है और साथ में अनन्य भक्त भी बनी हुई है। ऐसे कोई भी कार्य करें उस कार्य के साथ परमात्मा की याद निरन्तर बनी रहे वह अनन्य भक्ति कही जाती है कृष्ण कहते हैं अगर कोई पापी दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा ध्यान करता है तो वह साधु ही मानना चाहिये कारण कि किसी ने जाने अनजाने मे कोई पाप कर दिये फिर जैसे ही उसको परमात्मा हर जगह नजर आने लगा वह तत्काल उसी क्षण धर्मात्मा हो जाता है, वह साधु ही मानने योग्य है कारण कि उसने अब परमात्मा के साथ आत्मसात अच्छी तरह कर लिया है। बड़े-बड़े सन्त महापुरूष हुए हैं जैसे पहले रतना भील हुआ करते थे यानि जंगलों से कोई भी गुजरता उसको लूट लेते थे, कहते हैं एक दिन नारद जी जंगल से गुजर रहे थे, रतना डाकू ने नारद को कहा कि सब कीमती चीजें निकाल कर रख दो, तब नारद जी ने कहा रतना को कि, जो तुम लोगों का धन लूटकर ले जाते हो इसका क्या करते हो तब रतना ने कहा कि इसको बेच कर मैं अपने परिवार का पेट भरता हूँ, तब नारद जी ने कहा कि जो तुम यह पाप करते हो उसमें तुम्हारे घर वाले भी भगीदार है क्या, रतना कुछ देर चुप रहा फिर बोला कि इस बात पर तो मैंने कभी सोचा नहीं, तब नारद जी ने कहा कि तुम पहले अपने घर वालों से पूछ कर आओ तब मुझको लूटना। तब रतना ने कहा जब तक मैं पूछ कर आऊंगा तब तक मैं तुम्हे पेड़ से बांधकर जाऊंगा कहीं तुम भाग ना जाओ, फिर रतना नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर की तरफ भागा, जाकर अपने माता-पिता से पूछा कि मैं जो लूटकर लाता हूँ क्या इस पाप में आप भी मेरे भागीदार हो। माँ-बाप ने कहा कैसी बात करते हो हम तुम्हारे पापों में काई भागीदार नहीं फिर रतना बीवी-बच्चों के पास गया वहाँ भी यही जवाब मिला। रतना भागता हुआ जंगल में गया और नारद को पेड़ से खोल कर पैरों में गिर गया, एक क्षण में रतना को ज्ञान हो गया और वही रतना डाकू फिर ऋषि वाल्मिकी कहलाये, जिस क्षण रतना को परमात्मा की झलक मिली उसी क्षण रतना ऋषि बन गया। कृष्ण कहते हैं जिस समय मनुष्य अनन्य भक्त हो जाता है चाहे वह पहले पापी दुराचारी ही क्यों ना रहा हो, अनन्य भक्त होते ही वह तत्काल उसी क्षण धर्मात्मा हो जाता है, निरन्तर रहने वाली शांति को प्राप्त हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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