कविंपुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।
प्रयाणकालेमनसाचलेनभक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति
दिव्यम्।।
सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।
प्रयाणकालेमनसाचलेनभक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति
दिव्यम्।।
अर्थ जो सर्वज्ञ, अनादि, सर्वोत्तम सत्ता , सूक्ष्म से भी सूक्ष्म , सबका पालनहार , अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाशवान अर्थात ज्ञान स्वरूप के ऐसे अचिंत्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह भक्तियुक्त प्राणी अन्त समय में अचल मन से और योगबल के द्वारा भौहों के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके शरीर छोड़ने पर उस परम दिव्य ईश्वर को ही प्राप्त होता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 9-10
परमात्मा को ‘कविम्’ कहने का तात्पर्य है, कि परमात्मा के ज्ञान के बाहर कुछ भी नहीं, सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले होने से, व सम्पूर्ण जगत की रचना करने वाले होने के कारण परमात्मा का नाम ‘कवि’ है।
पुराण अर्थात अनादि है, काल (समय) से अतीत यानि काल को भी बनाने वाला परमात्मा है। जीव और जगत सब पर शासन करने वाला है, प्रकृति तो विनाशशील है। प्रकृति कारण का भोग करने वाला जीव अविनाशी है इन दोनों प्रकृति व जीव को एक परमात्मा अपने शासन में रखता है।
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म कहने का अर्थ है कि परमात्मा चिन्मय है, परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म है। परम मन बुद्धि का विषय नहीं है, मन बुद्धि परमात्मा को पकड़ नहीं पाते, मन बुद्धि तो प्रकृति के होने के कारण प्रकृति को ही नहीं पकड़ पाते, फिर परमात्मा तो प्रकृति से अत्यन्त परे है। उसको पकड़ना इच्छा रखने वाले मनुष्य के वश में नहीं, परमात्मा सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा है।
सबका धारण पोषण करने वाला, परम प्रभु अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले हैं और उनका पोषण करने वाले हैं।
जैसे सूर्य में प्रकाश रहता है ऐसे ही प्रभु में नित्य ज्ञान बोध रहता है। ईश्वर ज्ञान स्वरूप है। अज्ञान से परे है। अचिंत्य स्वरूप का चिन्तन अर्थात समता की अनन्त गहराई में डूबकर आत्मा को आत्मा में विलीन कर देना ही परम के ध्यान का चिन्तन है। भगवान कहते हैं ऐसा साधक जो भक्ति युक्त है, वह मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से, योग बल के (स्थिरता के) द्वारा दोनों भौंह के मध्य भाग में प्राणों को स्थिर करके शरीर का त्याग कर जाता है वह परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
पुराण अर्थात अनादि है, काल (समय) से अतीत यानि काल को भी बनाने वाला परमात्मा है। जीव और जगत सब पर शासन करने वाला है, प्रकृति तो विनाशशील है। प्रकृति कारण का भोग करने वाला जीव अविनाशी है इन दोनों प्रकृति व जीव को एक परमात्मा अपने शासन में रखता है।
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म कहने का अर्थ है कि परमात्मा चिन्मय है, परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म है। परम मन बुद्धि का विषय नहीं है, मन बुद्धि परमात्मा को पकड़ नहीं पाते, मन बुद्धि तो प्रकृति के होने के कारण प्रकृति को ही नहीं पकड़ पाते, फिर परमात्मा तो प्रकृति से अत्यन्त परे है। उसको पकड़ना इच्छा रखने वाले मनुष्य के वश में नहीं, परमात्मा सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा है।
सबका धारण पोषण करने वाला, परम प्रभु अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले हैं और उनका पोषण करने वाले हैं।
जैसे सूर्य में प्रकाश रहता है ऐसे ही प्रभु में नित्य ज्ञान बोध रहता है। ईश्वर ज्ञान स्वरूप है। अज्ञान से परे है। अचिंत्य स्वरूप का चिन्तन अर्थात समता की अनन्त गहराई में डूबकर आत्मा को आत्मा में विलीन कर देना ही परम के ध्यान का चिन्तन है। भगवान कहते हैं ऐसा साधक जो भक्ति युक्त है, वह मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से, योग बल के (स्थिरता के) द्वारा दोनों भौंह के मध्य भाग में प्राणों को स्थिर करके शरीर का त्याग कर जाता है वह परमात्मा को ही प्राप्त होता है।