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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
अर्थ हे पृथानन्दन ! उस अभ्यासयोग युक्त चेतना से, जो किसी और के विषय का चिंतन नहीं करता है,और केवल परम पुरुष का ही ध्यान करते हुए शरीर छोड़ने वाला प्राणी दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 8 अभ्यास और योग ये दो शब्द आये हैं इस श्लोक में, संसार माया से मन को हटाकर परम में बार-बार मन लगाने का नाम अभ्यास है, और समसाधना (समानता) का नाम योग है, और योग से युक्त एक परम प्रभु के सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य न हो, ऐसे मन से परम प्रकाश का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग कर जाता है वह परम धाम (मुक्ति) को प्राप्त होता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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