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श्री भगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।
अर्थ श्री भगवान बोले: "अक्षर ब्रह्म, परम अविनाशी सत्ता और स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। प्राणियों की उत्पत्ति-स्थिति व् सत्ता संतुलन को प्रकट करने वाला त्याग कर्म कहलाता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 3 अक्षर ब्रह्म परम है, अक्षर का अर्थ है, ध्वनि, सम्पूर्ण ब्रह्म में जो हर पदार्थ या कोई भी चीज टकराने में जो ध्वनि यानि साउंड निकलता है वह परम से निकला शब्द है। पूरी पृथ्वी पर जितने भी धातु है सब में अलग-अलग ध्वनियाँ निकलती है, जैसे आप अपने  सामने अलग-अलग धातु के बने बर्तन रख लें जैसे स्टील, लोहा, सिल्वर, कंसी, तांबा, पीतल, चांदी इन सब धातु के बने बर्तन को आप उल्टा रख करके, एक चमच इन पर टकरायें टन-टिन-टुन की जो ध्वनियाँ निकलेगी, वह सब अलग-अलग निकलेगी, इन को ही रिकॉर्ड करके संगीत बनता है, पियानो, गिटार जितने भी इंस्ट्रूमेंट होते हैं, उन सब में अलग-अलग धातु की तारें लगी होती है, और उनको एक साथ जब टकराया जाता है, तब उनमें संगीत निकलता है। ब्रह्म की हर चीज में ध्वनि है, जैसे आप चुटकी बजाएं तो दोनो उंगलियों के टकराने से बीच में ध्वनि निकलती है, उसको कृष्ण अक्षर कहते हैं, हर चीज में ध्वनि है आप अपनी दोनों हथेली टकरायें आवाज निकलेगी, आप अपने दांत टकरायें आवाज निकलेगी, कोई भी चीज टकराती है, ध्वनि निकलती है, जैसे लम्बी गली है और आगे जाकर बन्द होकर एल साइज में मुड़ती है, ऐसी गली में जब बहुत जोर की हवा चलती है, तब हवा बन्द गली से टकराकर दूसरी साइड में घूमती है, तो एक हवा की ध्वनि निकलती है, ऐसे पूरे ब्रह्म में ध्वनि है, पानी की टिप-टिप की ध्वनि, झरनों की ध्वनि है, बारिश, बादल, बिजली की कड़कड़ाहट की ध्वनि, पशु, पक्षी, जीव-जन्तुओं की ध्वनि, सम्पूर्ण ब्रह्म में जो ध्वनि है वह परम की ही ध्वनि है। वैज्ञानिक कहते हैं सम्पूर्ण ब्रह्म अग्नि है और इस अग्नि से ही ध्वनि निकलती है और तत्वदर्शी सन्तों ने कहा है, की ध्वनि से अग्नि प्रकट होती है तीन ध्वनियां मूल ध्वनियां है, ओ, उ, म इन तीन ध्वनियों का जोड़ ओम है, बाकी सभी ध्वनियां इन तीन ध्वनियां का ही विस्तार है, मूल जो तीन ध्वनियां है, यह परम का ही संगीत है, कृष्ण ने इन तीन ध्वनियों के जोड़ ओम को गीता में कई जगह अक्षर कहा है और यह अक्षर ब्रह्म ही परम है।
  • कृष्ण कहते हैं अक्षर ब्रह्म परम और स्वभाव अध्यात्म है। स्वभाव को अध्यात्म कहते हैं, स्वभाव कोई भाषा नहीं है, लेकिन भाषा के पीछे छिपा हुआ एक तत्व है मौन, वह अपना स्वभाव है, शब्दों में जीये तो सब अलग-अलग है, मौन में देखें तो सब एक है, भाषा तोड़ती है मौन जोड़ता है, जैसे एक कमरे में आपने एक दीया जलाया उसका प्रकाश कमरे में फैल गया, फिर आपने दूसरा दीया जलाया दूसरे दीये से जो प्रकाश निकला वह पहले दीये के प्रकाश में बिना टकराये मिल गया, आपने उस कमरे में सैकड़ों दीये जला दिये सब दीये अलग-अलग रह जाएंगे प्रकाश एक हो जाएगा। ऐसे ही एक कमरे में एक-दो या पाँच दस लोगों ने ध्यान लगाया, सब भीतर मौन में एक हो जाएंगे, और बाहर सबके शरीर अलग-अलग रह जाएंगे, सम्पूर्ण ब्रह्म का स्वभाव मौन है, मौन में आप एक फूल से भी बात कर सकते हैं, चांद, तारे, पेड़, पशु, पक्षी सबको मौन में महसूस कर सकते हैं, मौन क्या है इसको शब्दों में बताया नहीं जा सकता, मौन महसूस किया जा सकता है शब्द तोड़ते हैं मौन जोड़ता है, मौन एक सन्नाटा है, शांति है, निरन्तर सुनाई देने वाला एक शून्य संगीत है। शब्दों में सबके अलग-अलग नाम है, पद है, पहचान है, पहचान में कोई डॉक्टर है, कोई नेता है, कोई फौजी है, तो कोई किसान है, कोई बिजनेसमैन है तो कोई दुकानदार है, शब्दों में सबकी पहचान अलग-अलग है, अगर आपकी पहचान छीन ली जाए, आपका पद छीन लिया जाए, आपका नाम भी छीन लिया जाए, सारे शब्द मौन हो जाए, फिर जो शेष बचता है वह आप हैं, सब शांत हो जाने पर जो भीतर मौन है, वह हमारा स्वभाव है और स्वभाव को अध्यात्म कहते हैं।
  • कृष्ण कहते हैं अक्षर ब्रह्म परम है और स्वभाव को अध्यात्म कहते हैं तथा भूतों के भावों को उत्पन करने वाला जो त्याग है, उसको कर्म कहते हैं।
मनुष्य के भावों में यानि विचारों में बार-बार त्याग के विचार आते हैं, त्याग के विचार करना ही कर्म कहा जाता है, इच्छाओं को प्राप्त करने के लिए किया जाता है वह कर्म है, और इच्छा त्याग कर यानि फल की इच्छा ना रखकर जो कर्म किये जाते हैं वह त्याग है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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