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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
अर्थ हे पृथानन्दन! जो कोई भी इन दोनों मार्गों को जानता है, वह मोहित नहीं होता। अतः अर्जुन, तू हमेशा योग युक्त और समता में स्थित रह। इस अध्याय में विविध धर्मों और कर्मों के फल को जानकर भक्त योगी उन सभी के पुण्य फलों को त्यागकर अनादि स्थान परमात्मा के परम धाम को प्राप्त होता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 27-28 भगवान कहते हैं दोनों मार्ग को तत्व से जान कर, (कृष्ण और शुक्ल) योगी मोहित (विचलित) नहीं होता अर्थात परमात्मा को जानने वाले योगियों को पता होता है कि इस में रात्रि दिन का खेल नहीं। योगी हर क्षण परमात्मा के साथ एकीभाव रहते हैं, मृत्यु कभी भी आये चाहे शुक्ल या कृष्ण,योगी हर पल परमात्मा में युक्त रहता है,और जब भी देह त्याग करता है,योगी परम गति को प्राप्त होता है। इस कारण हे अर्जुन! तू सब काल में चाहे देवयान हो या पितृयान हर समय समबुद्धि रूप योग से युक्त हो जा अर्थात योगयुक्त और योगरूढ़ हो जा यानि सब समय में परम की याद में डूब कर कर्म कर योगी पुरूष इस योग के रहस्य को तत्व से जान कर, वेदों में पढ़े हुए देवयान, पितृयान तथा यज्ञ, दान,तप आदि को करके फल चाहते हैं। सुख,स्वर्ग आदि पुण्यफल उन सब को निःसंदेह (सम्पूर्ण विश्वास से) उल्लंघन (लांघ जाना) कर जाता है और सनातन परमपद (मुक्ति) को प्राप्त होता है। अनुभव से जानना तत्वज्ञान है, पढ़कर जानना ज्ञान है, दोनों मार्ग को तत्व से जानकर मोहित नहीं होता वह जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। जब तत्व का बोध होता है फिर तप की क्या जरूरत है जब परम धाम की मंजिल मिल गई,फिर मार्ग पर दौड़ने का क्या फायदा ?  ‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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