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पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।
अर्थ सब कुछ परम ईश्वर के अन्तर्गत है। यद्यपि वह सब जगह है और सभी प्राणी उसमे ही रहते है फिर भी उसे केवल निरन्तर भक्ति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 22 परमात्मा स्वयं व्याप्त है अर्थात परमात्मा सब जगह है,कण-कण में है, सब समय में है, सम्पूर्ण वस्तुओं में है, सम्पूर्ण क्रियाओं में है, सम्पूर्ण प्राणियों में है। जैसे सोने से बने हुए गहनों में पहले भी सोना ही था,गहने बनने पर भी सोना ही रहा,और गहनों के नष्ट होने पर भी सोना ही रहेगा। परन्तु सोने से बने गहनों के नाम जैसे (कड़ा, अंगूठी,चेन,हार,बाजूबंध) रूप, आकृति,तोल,मूल्य आदि पर दृष्टि रहने से सोने की तरफ दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही संसार के पहले भी परमात्मा थे। अब संसार रूप में भी परमात्मा है,संसार का अन्त होने पर भी परमात्मा रहेंगे। लेकिन जीव प्रकृति के गुणों से मोहित होकर ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा,आदि मान लेने से परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं जाती। भगवान कहते हैं कि जिस सचिदानन्दघन परमात्मा से समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम प्रभु तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। अनन्य का अर्थ है आपके भीतर आप इतने एक हो जाए कि आप जिस तरफ आंख उठाएं आपके पूरे प्राणों की आंख उस तरफ उठ जाए। अनन्य भक्ति का यही अर्थ है कि आप संसार की इच्छा त्याग कर एक परमात्मा में ही निरन्तर ऐकी-भाव हो जाए।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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