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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।

ओमित्येकाक्षरंब्रह्मव्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।
अर्थ इन्द्रियों के सम्पूर्ण द्वारों को रोककर मन को हृदय में स्थिर करके और अपने प्राणों को मस्तक में केंद्रित कर , दृढ़ता से योग में स्थित हुआ जो साधक ‘ओम’ अक्षर ब्रह्म का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है व्याख्यागीता अध्याय 8 का श्लोक 12-13 कृष्ण कहते हैं जो पुरूष योग में युक्त होकर ओम इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ। स्वरूप में मुझ निर्गुण निराकार का चिंतन करता हुआ,आप इस बात को अच्छे से समझे लंबे खेल शब्दों का नहीं भावों का है,शब्द तो भाव को समझने का जरिया है। जैसे आपने वृक्ष का पत्ता तोड़ा उस पत्ते का क्या रंग है आप किसी से पूछो तो वह कहेगा इसका रंग ग्रीन है,उसको किसने बताया कि यह कलर ग्रीन है,उसको इस कलर का नाम उसके परिवार,दोस्त,टीचर आदि ने बताया कि यह ग्रीन कलर है। उनको भी उनके समाज ने बताया,जब सबसे पहले इस कलर को ग्रीन नाम दिया तब इसको ब्लैक या रेड कोई भी नाम मिलता तो आज हम इस कलर को रेड या ब्लैक ही कहते इसका नाम बदल सकता था। लेकिन जो दिख रहा है कलर वह नाम नहीं कलर का भाव है,आप आँखें बंद करके येलो कलर सोचें तो जो आपको कलर दिख रहा है वह कलर का भाव आप शब्द से समझ गये, अब आप जो कलर महसूस कर रहे हैं,उसके नाम पर ना जाकर कलर पर जायें,शब्द तो भाव समझाने के लिए है,भगवान कहते हैं ओम इस एक अक्षर स्वरूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थ स्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर त्याग जाता है वह परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अब इस बात को ठीक से आप समझ लें,एक तो जबरदस्ती इन्द्रियों को विषयों से हटाना होता है,और एक होता है सम्यक रूप से संयम करना,झटके से, दमन से, विषयों से भाग जाने से, इन्द्रियां नहीं हटती जैसे धन आपको खिंचता है तो धन से भाग जाना कठिन नहीं,भागने के लिए बहादुरी की जरूरत नहीं अक्सर कायर ही भागा करते हैं। हम सबको छोड़कर भाग सकते हैं लेकिन अपने आप को छोड़कर नहीं भाग सकते। जहाँ भी जाएंगे आप अपने साथ ही होंगे, चाहे जंगल में जाओ चाहे पहाड़ों में जाओ आप अपने साथ ही रहोगे। आप विषयों से भाग सकते हैं लेकिन कहीं भी जाओगे भीतर जो धन आपको खिंचता था वह खिंचाव विलीन नहीं हुआ। कृष्ण कहते हैं सब इन्द्रियों को रोककर तो पहली बात ठीक से समझ लें कि कृष्ण विषयों को दबाने के लिए नहीं कह रहें और ना ही कृष्ण की जीवनी ऐसा कहती। इसका अर्थ दूसरा है विषयों से भागकर जाओगे भी तो कहाँ,जहाँ भी जाओगे वहीं पर भी विषय है वहाँ पर भी तो संसार है। कृष्ण का अर्थ है इन्द्रियों को सयंम करना और सयंम करने का एक ही उपाय है जब भी आपको कोई विषय आकर्षित करे तो ध्यान विषय पर ना रखकर अपने ऊपर रखें। जब भी कोई स्त्री या पुरूष का चेहरा आपको सुन्दर दिखाई पड़े तो ध्यान को सुन्दर व्यक्ति पर केंद्रित ना करें, उसी क्षण ध्यान अपने पर केंद्रित करे और देखें कि मैं सौंदर्य से आकर्षित हुआ हूँ। आपको अपने से लड़ने की भी जरूरत नहीं आपको अपना साक्षी बनने की जरूरत है,जैसे ही आप अपने ध्यान को स्वयं पर लें जाएंगे,तो आप अचानक पाओगे इन्द्रियों के द्वार बंद हो गये क्योंकि आपका ध्यान भीतर की तरफ बहने लगा है, जहाँ ध्यान होगा चेतना वहीं बहने लगेगी। जहाँ गड्डा होगा पानी वहीं बहेगा,इस लिये ध्यान विषयों पर नहीं अपने स्वयं पर लगाऐं दृष्टा बनकर। इस बार जब कोई आपको गाली दे तो आपका ध्यान गाली देने वाले पर ना रखें,गाली सुनने वाले पर ध्यान रखें,आप अचानक पाओगे इन्द्रियों के द्वार बंद हो गऐ और चेतना वापस लौट आई आपके भीतर। कृष्ण के संयम कहने का मतलब है ऊर्जा का स्वयं में ही रमण करना,स्वयं में ही स्थिर हो जाना। इस संयम को जो प्राप्त हो गया और भावों को,मन को, हृदय में स्थिर कर लिया है, वह संयम को प्राप्त हो गया है और जब आपके भीतर ऐसी ऊर्जा होगी तो प्राण अपने आप मस्तिष्क में ठहर जाते हैं। कृष्ण कहते हैं इस प्रकार योग धारण में सम्यक प्रकार से स्थित हुआ साधक ओम इस अक्षर का मानसिक उचारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ जाता है वह परम गति को प्राप्त होता है। यह बात थोड़ी समझनी पडे़गी। इस शब्द में बड़ा भ्रम है क्योंकि हम एक ही तरह का उच्चारण जानते हैं जो हम शब्दों से करते हैं,हमें उस उचारण का कोई पता नहीं जो अपने आप होता है। कृष्ण उस नाद की बात नहीं करते जो टकराने से ओम बनता है, यह कंठ की चेष्टा से उच्चारण होता है,यह कंठ से नीचे हृदय तक नहीं जाता,यह टकराने का नाद है यह शब्द दो चीजें टकराने से पैदा हुआ है। दोनों होंठ टकराते हैं जीभ तालवे से टकराती है कंठ की मांसपेशियां सिकुड़ती हैं टकराती हैं आवाज पैदा हो जाती है, इस जगत में जितनी भी आवाज है वह टकराने की आवाज है चाहे पत्तों की हवा से सरसराहट हो,चाहे लहरों की चट्टानों से टकराने की ध्वनि हो,चाहे पक्षियों की चहचहाहट हो,चाहे बादल की गड़गड़ाहट हो, चाहे पानी के कल-कल का नाद हो,चाहे सितार पर गूंजता हुआ स्वर हो,सब के सब आहत नाद है यानि टकराने की ध्वनि है। कृष्ण इस नाद के उच्चारण की बात नहीं कर रहे,एक नाद और भी है जो गले से ओम-ओम करना नहीं पड़ता वह अपने आप होता है। आप के भीतर जब कोई विचार ना रहे, आप शांत चित होकर जब एकांत में परम मौन होकर बैठते हो,भीतर ही आँखों और कानों को बंद करके सुनना की क्या गूंजता है भीतर तभी एक अनूठी ध्वनि सुनाई पड़नी शुरू हो जाऐगी वही ओम का नाद है,उसको शांत होकर सुनना ही उच्चारण करना होता है। इस एक अक्षर को हिन्दुओं ने ओम कहा इसी को मुस्लिम ने आमीन कहा क्रिश्चियन ने आमेन कहा और सिखों ने ओंकार कहा। भगवान कृष्ण कहते हैं इस अक्षर रूप का उच्चारण होता हुआ अपने भीतर और इसके अर्थ रूप में मेरा यानि निराकार का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ जाता है वह परम गति को प्राप्त हो जाता है। कृष्ण परम गति किसे कहते हैं वह भी आप समझ लें,परम गति उसे कहा है कि उसके आगे फिर कोई गति नहीं,परम गति उसे कहा की वह अंतिम गति है उससे आगे कुछ भी नहीं इस लिये मोक्ष ही परम गति परम धाम है, वही परम यात्रा है उससे आगे कोई यात्रा नहीं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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