रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।
अर्थ हे कुन्तीपुत्र ! मैं जल में रस हूँ, मैं सूर्य और चन्द्रमा में प्रभा हूँ , मैं समस्त वेदों में प्रणव (औंकार) हूँ, मैं ही पुरुषों का पुरुषार्थ हूँ व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 8
जल में रस मैं हूँ: अब श्री कृष्ण अदृश्य की और इशारा करते हैं कि मैं जल में रस हूँ। रस बहुत अद्भुत शब्द है, आप जल, अमृत जो भी पीते हो वह दिखाई पड़ता है और उसको पीने पर जो अनुभव में आता है, वह रस है, वह भीतर की आंतरिक अनुभूति है।
जैसे आपका प्रेमी आपके पास बैठा है आप उसके हाथ में हाथ डाल कर बैठे हो, लेकिन जो भीतर प्रेमी के संवाद उत्पन्न होता है पास बैठने का, वह रस है, दो प्रेमीयों के भीतर जो रस हाथ पकड़ने से उत्पन्न होता है, वह दोनों कहते है कि एक पल भी हम एक-दूजे से दूर नहीं हो सकते, एक पल भी एक-दूजे को देखे बिना नहीं रह सकते, उन दोनों के भीतर जो रस है वह आंतरिक है और उन दोनों के हाथ देखकर कोई उनको लैबोरेट्री में चेक करवाए और कहे कि इनके हाथो में कौन-सी जगह वह रस है देखो, अगर हाथ तो क्या उनके पूरे शरीर को भी कोई काट-पीट कर पता लगाओ तो खून, पानी, हड्डियां, मांस सब मिल जाएंगे परन्तु वह रस नहीं मिलेगा, रस भीतर अदृश्य है, आंतरिक अनुभव में उतरना रस है ।
जैसे गुलाब दृश्य में दिखाई पड़ता है और सुगंध अदृश्य है जैसे आप गुलाब को देखते हो आप कहते हो कि कितना सुन्दर फूल है, अब कोई आप से पूछे कहाँ है सौंदर्य इस फूल में, तो बताना मुश्किल हो जाएगा, सौंदर्य को समझने के लिये शब्द छोटे पड़ जाएंगे, सौंदर्य को बनाया नहीं जा सकता, असल में फूल में सौंदर्य नहीं है, उस फूल के अनुभव में आपके भीतर जो बोध पैदा होता है उस रस में सौंदर्य है, सौंदर्य रस है, प्रेम में रस है, आनंद रस है, भगवान कहते हैं जल में मैं रस हूँ ।
चन्द्रमा और सूर्य में मैं प्रकाश हूँ: बहुत गहरी बात कही है यहां भगवान ने कि चन्द्र और सूर्य में प्रकाश मैं हूँ, चन्द्रमा, तारे सूर्य सम्पूर्ण संसार दिखाई पड़ता है लेकिन जिसकी वजह से यह संसार दिखाई पड़ता है वह प्रकाश, दिखाई नहीं पड़ता, अंधो की तो बात ही क्या करें आँख वालो को भी प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता, भगवान कहते हैं मैं चांद, सूर्य नहीं की उनकी वजह से दिखाई पड़े वह जो चांद, तारे, सूर्य में प्रकाश है वह मैं हूँ।
वेदों में ओंकार, आकाश में मैं शब्द हूँ: वेदों में सिर्फ ओम मैं हूँ, बस इतना ही मैं हूँ, बाकी मैं नहीं हूँ, बाकी तो जगत है सिर्फ ओम मैं हूँ ।
शास्त्र नष्ट हो जाए और ओम बच जाए तो समझो सब शास्त्र बच गये और ओम खो जाए तो समझो सब शास्त्र खो गए। ‘अ’ ‘उ’ ‘म’ इन तीन मूल ध्वनियों का जोड़ ओम है। सारे शब्दों का विस्तार ओम का ही विस्तार है, फिर भगवान कहते हैं आकाश में मैं शब्द हूँ, आकाश दिखाई पड़ता है, सब चीजें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन शब्द दिखाई नहीं पड़ता, यह आकाश में ध्वनि (शब्द) है यह अदृश्य है, धातु दिखाई देती है ध्वनि अदृश्य है, धातु को टकराओं आवाज कहाँ से आ रही है वह दिखाई नहीं पड़ती, परमात्मा से ‘अ’ ‘उ’ ‘म’ की तीन ध्वनियां निकलती हैं और इन तीन ध्वनियों का विस्तार ही आकाश में शब्द है, भगवान कहते हैं, यह मैं हूँ।
मनुष्यों में पुरुषार्थ मैं हूँ: पुरुषत्व की कोई सीमा नहीं, पुरुष आएंगे और जाएंगे, पुरुष बनेंगे और मिटेंगे, लेकिन पुरुषार्थ तो शाश्वत है, पुरुष ही बदलते रहते हैं पुरुष की तो हर जन्म में शक्लें, शरीर, नाम, परिवार सब बदल जाते हैं, लेकिन जो भीतर है निर्गुण निराकार वह एक पुरुषत्व (पुरुषार्थ) कभी नहीं बदलता शरीर ही बदलते हैं।
श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन को याद दिलाते हैं कि लहरों में मैं सागर हूँ, लहरें तो सिर्फ दिखाई पड़ती है वह तो आभास है, असली सत्य तो सागर है लहरों के नीचे गहरे में ! कृष्ण पुरुषों की बात नहीं कर रहे वह तो पुरुषत्व की बात कर रहे हैं, जिसके ऊपर सारा खेल रचा हुआ है ।