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भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
अर्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत एवम मन, बुद्धि और अहंकार को मिलाकर ये आठ प्रकार के भेदो वाली मेरी यह अपरा (परिवर्तनशील) प्रकृति है और हे अर्जुन ! इससे पृथक जीवरूप से निर्मित मेरी परा (अपरिवर्तनशील) प्रकृति का बोध कर, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 4-5 जैसे आप अपने शरीर में देखेंगे तो यह शरीर इन आठ अपरा प्रकृति से बना हुआ है। आपके शरीर में सत्तर प्रतिशत पानी की मात्रा होती है जैसे रक्त, लार, गीला मांस और तीस प्रतिशत मिट्टी है अपने शरीर में जैसे हड्डि़याँ, मांस, चमड़ी भगवान कहते हैं कि ऐ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार यह तो आठ प्रकार से विभाजित अपरा प्रकृति है। जैसे शरीर में मिट्टी, पानी है ऐसे ही अग्नि भी है जो जठर अग्नि खाने को पचाती है और वायु जो हमारे अपान व प्राण रूप में काम करती है, ऐसे ही पाँचवा आकाश जो शब्द है वह आकाश है। इन पांच जोड़ का अपना शरीर बना है इस शरीर के भीतर मन, बुद्धि तथा अहंकार भी जुड़ा है, इन आठ प्रकार के जोड़ से जैसे अपना शरीर बना है ऐसे ही यह सम्पूर्ण ब्रह्म आठ प्रकार के तत्वों से बना है। संसार में पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, मानव जितने भी दृश्य नजर आ रहे हैं, इसको ही भगवान अपनी अपरा प्रकृति कहते हैं। श्री कृष्ण ने पहली चीज कही, पृथ्वी और सबसे अंतिम चीज कही अहंकार, पृथ्वी सबसे मोटी और स्थूल चीज है, अहंकार सबसे सूक्ष्म और बारीक चीज है। इस जगत में सूक्ष्मत्व अस्तित्व है वह अहंकार है और जो स्थूलत्म अस्तित्व है वह है पृथ्वी, इस तरह एक-एक के बाद सबसे पहले भीतर की यात्रा में कहा, मन। मन का अर्थ है, हमारे भीतर वह जो सचेतना है, वह जो कॉमनसेंस उसको मन कहते हैं। हमारे भीतर जो मनन की शक्ति है उसका नाम मन है, जानवर भी मन से जीते हैं लेकिन उनके पास बुद्धि नहीं है। चिंतन का नाम बुद्धि है और बुद्धि के भी पीछे, जब कोई बहुत बुद्धि का प्रयोग करता है बुद्धि से, तब भीतर एक और सूक्ष्म चीज का जन्म होता है, जिसका नाम है अहंकार यानि मैं। इन आठ तत्वों से मैंने यह सारी प्रकृति रची है, कृष्ण कहते हैं यह किसलिए कहते हैं। यह वे इसलिए कहते हैं कि इन आठ तत्व में तू प्रकृति को जानना और जब इन आठ के पार चला जाये तब तू मुझे जान पाएगा। इन आठ के भीतर तू जब तक रहे, तब तक तू जानना कि अभी तक संसार में है और इन आठ के पार हो जाए, तब तू जानना कि परमात्मा में है। बुद्धि भी प्रकृति है, मन भी प्रकृति है जैसे बाहर पड़ा हुआ पत्थर है, ऐसे ही भीतर पड़ा हुआ अहंकार है, इसमें कोई अन्तर नहीं, ये दोनों एक ही चीज है, सब बना बनाया है और जिस दिन आप इस अहंकार को भी देख पाओगे उसी दिन आप इस आठ प्रकार वाली प्रकृति से छलांग लगाकर उस भीतर की ‘परा’ प्रकृति में पहुँच जाओगे, जिसे कृष्ण कहते हैं मेरा स्वरूप, मेरी चेतना। और उसी चेतना ने सब धारण किया हुआ है, तब आप जान पाओगे की आपके शरीर को भी उसी ने धारण किया हुआ है, तब आप जान पाओगे कि आपने कभी देखा ही नहीं था जो प्राणों का प्राण है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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