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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
अर्थ हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी ईच्छा और द्वेष से युक्त हो द्वंद्व और मोह में मोहित होकर संसार के सम्मोह को प्राप्त हो रहे है। व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 27 यह सुख दुख तो मनुष्य को अपने भीतर छिपे मोह के कारण लगते हैं इच्छा व किसी से द्वेष भावना ही जीव को बार-बार जन्म मृत्यु संसार में डालते रहते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं यह जो मनुष्य के भीतर इच्छा, राग है कुछ प्राप्त करने की लालसा है, यह मोह-द्वेष ही सम्पूर्ण प्राणियों को जन्म-मरण के चक्कर में डाले रखती है। इच्छाओं को त्यागो, संसार के भोग इच्छा से ही जीव बार-बार जन्म-मरण में भटक रहा है। जिन लोगों ने प्रेत आत्मा पर अध्ययन किया है, वह कहते है प्रेत आत्माओं को भी पीड़ा है इस बात की उनके पास वासना तो उतनी है, जितनी आपके पास है, लेकिन वह वासनाओं को पूरा कर सके वह शरीर उनके पास नहीं, मरते क्षण जो भीतर वासनाएं होती है वही वासनाएं नये जन्म का कारण बनती है, उनके मरते क्षण में जीवन का सारा निचोड़ होता है, वही इच्छाएं नये गर्भ के लिये उनको धक्का देती है। जब तक भीतर में एक भी इच्छा शेष है या किसी से द्वेष है तब तक कोई भी प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए प्रेमी सज्जनों एकांत स्थान पर बैठ कर अपना स्वअध्ययन करें अपने भीतर की इच्छाओं को शांत होकर दृष्टा बनकर देखें, अपने आप से बात करें कि मैं क्या कर रहा हूँ, मैं क्यों कर रहा हूँ इच्छा-द्वेष। अगर मैं इच्छा को पूरा कर भी लूंगा तो भी कुछ पलों बाद वह मृत्यु उस सब को फिर बिखेर देगी, ध्यान, ज्ञान और वैराग्य से अपनी इच्छाओं को आत्मा में, विलीन कर देना ही जन्म-मरण के चक्कर को रोकना है और मूढता से इच्छाओं के साथ बंधे रहना ही जन्म-मरण के चक्कर में फंसे रहना है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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