कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।
अर्थ उन-उन भोग-कामनाओ से जिस मनुष्य का ज्ञान हर लिया गया है , वे अपने-अपने स्वभाव के अधीन होकर उन-उन नियमों में आस्था रखते हुए अन्य देवताओ की शरण लेते है जो-जो भक्त जिस भी देवता की श्रद्धापूर्वक पूजन करता है उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को और दृढ़ कर देता हूँ व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 20-21
वह तीनों आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी, देवताओं के नियम को धारण करके उनकी पूजापाठ करते हैं इन तीनों का स्वभाव खुद का नहीं है वह स्वभाव है प्रकृति माया के तीनों गुणों का सत्व, रज, तम का।
जो जो भक्त जिस भी देवता को श्रद्धा से पूजते हैं, प्रभु उस भक्त की श्रद्धा को उस देवता के प्रति स्थिर कर देते हैं, जिससे भक्त का उस देवता के प्रति विश्वास और बढ़ जाता है।
भगवान कहते हैं तेरे ही बनाये हुए देवता में मैं फल देकर तेरी श्रद्धा और बढ़ा देता हूँ। एक-एक पर श्रद्धा बढ़ा कर मनुष्य को कल्याण तक लेकर जाता हूँ। कृष्ण कहते हैं भरोसे के साथ उसकी श्रद्धा और मजबूत कर देता हूँ जिसकी तरफ उसका लगाव होता है, उसकी जो वासना है उसकी पूर्ति के लिए वह देवताओं को पूजते हैं, उसी वासना के लिए मैं कहता हूँ चलो ठीक है यही सही कम से कम यहाँ श्रद्धा तो बन रही है इसी श्रद्धा से शायद परमात्मा की शक्ति मिलनी शुरू हो जाये।