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उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।
अर्थ ये सभी भक्त उदार और श्रेष्ठ भाव वाले है लेकिन ज्ञानी तो मेरा ही स्वरुप है ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह स्थिर बुद्धि वाला ज्ञानी 'मुझ ' में ही ढृढ़तापूर्वक स्थित है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 18 पहले कहे हुए तीनों (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी) संसार की वस्तु के लिए भजते हैं वह माया प्रकृति के तीनों गुणों से उद्धार चाहते हैं। परन्तु ज्ञानी तो तीनों गुणों से परे आत्मा में एकीभाव से रहते हैं। आत्मा ही परम है, तब भगवान कह रहे हैं कि ज्ञानी तो मेरी ही आत्मा है मेरा ही स्वरूप है ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि वह प्रभु में मन बुद्धि व शरीर को अच्छी प्रकार स्थित करके आत्मा में रहता है। तीन तरह के लोगों को जैसे आर्त के दुख दूर होते ही प्रभु को भूल जायेगा, जिज्ञासु को धन मिलते ही प्रभु को भूल जायेगा, अर्थाथी को सुख मिलते ही प्रभु को भूल जायेगा असली भक्त चौथा है ज्ञानी इसको कुछ भी मिल जाये तृप्त नहीं होता, जब तक यह स्वयं परमात्मा ना हो जाये इस से पहले तृप्ति नहीं। इसलिये ज्ञानी की आत्मा में दृढ स्थिति होती है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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