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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकएकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
अर्थ उन सभी भक्तों में मुझमे नियुक्त ज्ञानी भक्त श्रेष्ट है और उस ज्ञानी भक्त को मैं और मुझे वह अतिप्रिय है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 17 ज्ञानी अन्य किसी भी वस्तु पर ध्यान ना देते हुए सिर्फ प्रभु के भावों के साथ स्थिर रहते हैं, हर रोज हर पल, क्योंकि ज्ञानी प्रभु को तत्व से जानते हैं, ज्ञानी तो किसी को भी देखता है जैसे पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, पानी, अग्नि सब जगह ज्ञानी को पता होता है कि प्रभु ही सबमें आत्म रूप से समाये हुए हैं, ज्ञानी को संसार नजर नहीं आता ज्ञानी को तो सर्वत्र प्रभु ही दसों दिशाओं में व्याप्त नजर आते हैं, ज्ञानी को प्रभु की रचना अत्यन्त प्रिय लगती है ऐसे ज्ञानी भगत प्रभु को भी बहुत प्रिय होते हैं। कृष्ण के कहने का यह मतलब नहीं कि जो मुझे प्रेम करते हैं मैं भी उनको ही प्रेम करूंगा ऐसी सोच तो मनुष्य की होती है। परमात्मा का प्रेम सब पर बरसता है जो परमात्मा से प्रेम नहीं करते उनको प्रभु मिलन का प्रेम मिल नहीं पाता। जैसे दो घड़े हैं उनमें से एक उल्टा पड़ा है और एक सीधा रखा है और बादल घनघोर बरस रहे हैं, जो उल्टा है उसपे भी बरस रहे है और जो सीधा है उसपे भी बरस रहे हैं कितना भी बरसता रहे बादल उल्टा घड़ा भरेगा नहीं और सीधा है वह भर जाएगा, प्रभु से जो प्रेम करते हैं उनको प्रेम मिलता है, ज्ञानी प्रभु से प्रेम करता है क्योंकि ज्ञानी संसार को खेल (ड्रामा) जान कर इस नाटक से वैराग्य हो जाते है, ज्ञानी को पता होता है यह, सारा नाटक दो कोड़ी का है, ज्ञानी उसकी तलाश में जाते हैं, जो इस जीवन के पार भी है। भगवान कहते हैं ज्ञानी अनन्य होकर मुझे प्रेम करते हैं उनको मैं भी प्रेम करता हूँ।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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