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न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।
अर्थ माया से मोहित होने पर आसुरी भाव से युक्त दुष्ट और पाप-कर्म करने वाले मुर्ख मनुष्य मेरी शरण से सर्वथा विमुख रहते है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 15 संसारी वस्तुओं के लालच में जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वह आसुरी लोग परमात्मा को नहीं मानते वह परम प्रभु की तरफ पीठ करके खड़े हैं, प्रकृति गुण से होने को भी मूढ मनुष्यों को लगता है कि मैं कर रहा हूँ, वह असुर स्वभाव के मनुष्य प्रभु की शरण नहीं होते वह तो अहंकार की शरण होते हैं, माया की शरण होते हैं। आप यह मत सोच लेना झगड़ा करने वाले गालियां देने वाले ही मूढ़ है, परमात्मा को ना भजना सिर्फ संसार के पदों के पीछे भागना भी मूढ मनुष्य हैं परमात्मा को भजे बिना जीवन के आखिर में पाओगे की हम वहीं खड़े हैं जहाँ से जीवन की शुरुवात हुई थी, लास्ट के पलों में पाओगे की हमारे जीवन की दौड़ व्यर्थ चली गई। मूढ मनुष्य अगर जीवन में प्रार्थना भी करता है तो भी उसकी मांग ही होती है, उनको पता नहीं परम प्रभु से क्या मांगना होता है, वह आसुरी परमात्मा से मांगते भी है तो नाशवान चीज अस्थाई सुख मांगते हैं, कृष्ण कहते हैं कि मेरी बनाई माया में डूबे हुए मेरे माया के सम्मोहन में डूबे हुए मेरा भजन नहीं करते और इस सम्मोहन (हिप्नोटाईज) से बंधे रहना ही उनकी मूढता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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