दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
अर्थ मेरी यह त्रिगुणात्मक देवी माया अत्यन्त विकट है परन्तु केवल मेरे शरण मात्र से वे इस माया (रूपी भवसागर) को तर जाते है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 14
कृष्ण कहते हैं अर्जुन, को तू मेरी शरण में हो जा, इस दौड़ से कैसे भी करके बच, ये प्रकृति के तीन गुण पूरा सम्मोहन का जाल है, यही मेरी योगमाया है अगर सम्मोहन से बाहर आना है तो तू परमात्मा के स्मरण में लग जा। अगर कोई व्यक्ति संसार का अपने भीतर से सम्बंध-विच्छेद करके आत्मा में आठों पहर एकीभाव रहते हुऐ कर्मयोग या सन्यास पर चले तो वह योगी इस भवसागर से देह त्याग होने पर तर जाते हैं यानि मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
बस इतना जान लो कि इस संसार में कोई भी वस्तु सत्य नहीं है अगर नाशवान चीजांे के पीछे दौड़ते रहोगे तो यह जीवन भी गंवा दोगे। इस जीवन का मुख्य उदेश्य भी यही है कि तुम प्रभु प्राप्ति करो, अगर यह जीवन भी माया के चक्कर में पिछले जन्मों की तरह खो दोगे तो पता नहीं यह माया आगे और कितने जन्मों तक आपको जन्म-मरण के दुखों का चक्कर कटवाती रहेगी, इस लिए प्रिय सज्जनों तुम संसार की माया को लांघ कर यानि अपने भीतर हृदय से त्याग कर संसार की मोह माया को, तुम निर्गुण निराकार परम प्रभु की शरण में चले जाओ, एक परम निर्गुण ही गुणों वाली माया से पार लगा सकते हैं, कुछ भी करो हर क्षण परमात्मा का ध्यान अपने भीतर दीपक की लौ की तरह जलने दो आठों पहर एक ही भाव रखो मेरे तो गिरधर है गोपाल दूजा नाहीं कोई।