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ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।
अर्थ समस्त सत्व, रजस और तमस भाव है ये सभी मुझसे ही उत्पन्न होते है तुम ऐसा समझो , परन्तु मैं उनसे सर्वथा अभिन्न होते हुए भी भिन्न हूँ व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 12 यह प्रकृति माया प्रभु की बनाई लीला है, इस प्रकृति में जितने भी प्राणी है उनके जो भाव (विचार) आते हैं, किसी को दुख के विचार आते हैं, किसी को भोग व लोभ-लालच के विचार आते हैं, तो किसी को सुख व ज्ञान के भाव आते हैं, यह सब भाव वैसे देखा जाए तो परमात्मा से ही होते हैं, इस बात को अच्छे से समझें, प्रकृति माया का आधार परम ही है आप यंू समझे थियेटर में बिना परदे के मूवी नहीं चल सकती, मूवी परदे पर ही चलती है ऐसे ही इस परम परदे पर प्रकृति माया तीन गुण वाली मूवी चल रही है। लेकिन भगवान कहते हैं मैं उनमें और वह मुझमें नहीं इस बात को अच्छे से समझे, कृष्ण कहते हैं यह लीला होती तो मुझसे ही है लेकिन में इस लीला में लिप्त नहीं होता, जैसे थियेटर के परदे पर मूवी में गोलियां चले, ऐक्सीडेन्ट हो या कोई हंसे या रोय चाहे आनंद में नाचे, इन सब चीजो से परदे पर कोई भी चीज का असर नहीं होता मूवी में दिखने वाली बारिश कभी परदे को गीला नहीं कर सकती, ऐसे ही परम प्रभु के परदे पर कुछ भी हो परमात्मा उनसे लिप्त नहीं होते भगवान कहते हैं उनमें मैं नहीं हूँ और फिर कहते हैं वे भी मुझमें नहीं है क्योंकि सभी मनुष्य प्रभु में नहीं है कारण कि सभी के सभी प्रकृति के गुणों से मोहित होकर गुणों में ही गोते लगा रहें हैं। ना तो मनुष्य के भाव प्रभु में है वह तो गुणों में मोहित है, इसलिए परमात्मा मनुष्य के कर्मों व उसके फल में लिप्त नहीं होते। परदे पर धार्मिक नाटक चले या हंसी मजाक का नाटक चले, परदे पर जैसा नाटक चलाओगे परदा वैसा ही नाटक दिखा देगा, ऐसे ही इस प्रकृति में मानव जैसा कर्म करेगा, जैसे भाव रखेगा प्रभु उसको वैसा ही उसके जीवन में नाटक दिखा देंगे।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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