बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
अर्थ हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! मैं ही काम और राग से रहित बलवानो का बल हूँ और प्राणियों में धर्म से अविरुद्ध (अर्थात् धर्मयुक्त ) 'काम' मेरा ही स्वरुप है व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 11
बलवानो का बल मैं हूँ: कृष्ण कह रहे हैं जिसकी वासना विलीन हो गई, जिसकी काम वासना हट गई, उसमें वीर्य यानि उसमें बल मैं हूँ कामवासना भी एक जहर है, व्यक्ति वासनाओं से भरता है, तब वासना से भरा व्यक्ति, आग लगे मकान में भी प्रवेश कर सकता है, वासना चाहे भोग की हो, चाहे धन की है, आदमी को वासना अंधा बना देती है, इसलिए श्री कृष्ण ने वासना को कट कर दिया, वासना को हटा देते हैं, वासनाओं को छोड़ कर बलवानो का बल मैं हूँ।
आप बलवान सिर्फ पहलवानों को ना समझ लेना कि बड़े शरीर वाले ही बलवान होते हैं। बलवान वही है, जिसने अपने मन व इन्द्रियों को जीत लिया बुद्ध, महावीर, ईशा, नानक, जम्भेश्वर, कबीर भी बलवान थे इन सभी धर्म गुरुवों में जो आत्मा का बल था वह भगवान कहते हैं मैं हूँ।
धर्म युक्त काम मैं हूँ: जिस दिन चित धर्म से भरा होता है, उस दिन व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह व्यक्ति बिलकुल होश में होता है, वासना से भरकर व्यक्ति संभोग करता है तो मूर्च्छा में होता है बेहोश होता है। मनुष्य अगर जिस दिन धर्म से भरा हो उस दिन पूर्ण होश में संभोग करता है, उस होश में वह किसी ऐसी आत्मा को जन्म दिलवाता है, जो वह जीवात्मा जन्मती है वह मानव कल्याण के लिये जन्मती है। जो धर्म से युक्त काम होता है सन्तान उत्पत्ति के लिए वह काम मैं हूँ।
कृष्ण ने जितना खुल कर ज्ञान दिया शायद अब से पहले किसी भी धर्म व शास्त्र में नहीं मिलेगा, कृष्ण कहते हैं, मृत्यु भी मैं हूँ, दुख भी मैं हूँ, काम भी मैं हूँ। वैसे तो पशु, पक्षी भी संभोग करते हैं, लेकिन वह संभोग तब ही करते हैं जब उनको सन्तान की उत्पत्ति करनी हो जैसे पशु साल में एक बार ही संभोग करते हैं, बिल्ली तीन महिने में, पक्षी छह महीने में एक बार और मनुष्य की बात करें तो मनुष्य की बुद्धि पशुओं से गिरी हुई मिलेगी हर रोज संभोग करते हैं, कृष्ण कह रहे है कि यह तो वासना है। धर्म से युक्त सन्तान उत्पत्ति के लिये किया जाये वह काम मैं हूँ।