श्री भगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।
अर्थ श्री भगवान बोले, हे पार्थ ! "मेरे" में आसक्त मन वाला मेरा आश्रय लेकर, योग में लगा हुआ तू मेरे समग्ररूप को संशयरहित होकर, जिस प्रकार से जान लेगा,उसको उसी प्रकार सुन व्याख्यागीता अध्याय 7 का श्लोक 1
मुझ में आसक्त मन वाला: इस बात को अच्छे से आप समझ लें कृष्ण गीता में बार-बार यह शब्द कहते हैं कि ‘मैं” हूँ‘ मुझ में मन वाला हो, अब इस शब्द को जो समझ गया वह पूरी गीता समझ गया और यह बात ना समझा उसका गीता ज्ञान अधूरा रह गया। लोग समझते हैं श्री कृष्ण तो एक राजा थे वह तो आम आदमी की तरह शरीर वाले थे और आज से पाँच हजार वर्ष पहले देवकी और वासुदेव के घर जन्में थे, फिर कृष्ण सृष्टि के रचियता कैसे हुए, संसार तो उनके जन्म से पहले भी चल रहा था और कृष्ण कहते हैं सब कुछ मैं ही हूँ तू मेरी शरण में आ, मुझ में मन वाला हो, जिसको यह कृष्ण की ‘मैं’ समझ नहीं आई उनको लगेगा कृष्ण तो बहुत अहंकारी है, आप समझें इस बात को कृष्ण शरीर की बात नहीं कर रहे वह तो इस शरीर के भीतर है, उसकी बात कर रहे हैं।
कृष्ण को जो आँख मिली है वह तो माँ-बाप से मिली है और उन आँख के पीछे से जो देख रहा है वह परमात्मा है, कृष्ण को जो गला मिला है वह माँ-बाप से मिला है, लेकिन जो वाणी है वह परमात्मा की है, अगर आप शरीर पर रूक गए तो आत्मा को नहीं पहचान पाओगे, जिसने भी कृष्ण की ‘मैं’ को ठीक से न समझा, वह व्यक्ति पूरी गीता को समझने में असफल रहा, इस एक छोटे से शब्द पर गीता का पूरा सार है।
जब हम कहते हैं ‘‘मैं’’, तो हमारे मैं की एक सीमा है और जब कृष्ण कहते हैं मैं तो वह मैं आसीम है, कृष्ण की मैं अहंकार वाली मैं नहीं, कृष्ण की मैं में तो पूर्ण आकाश है। यह आकाश भी उसमें समाया है, यह पेड़-पौधों के जो फूल खिलते हैं यह भी उसी में खिलते हैं, यह जो पक्षी उड़ते हैं आकाश में यह भी उसी में उड़ते हैं, यह मैं किसी व्यक्ति की नहीं, यह मैं कृष्ण के शरीर की नहीं, यह मैं जब भी कृष्ण बोलते हैं तब समझना परमात्मा बोलते हैं।
कृष्ण कहते मुझमें आसक्त मन वाला हो यहाँ कृष्ण शरीर की बात नहीं कर रहे हैं, परमात्मा की बात कर रहे हैं, परमात्मा का अर्थ है ‘सब कुछ’ जो सबको घेरे हुए है जो सबके भीतर छिपा है, वह निराकार और अरूप होते हुए भी सब रूपांे में व्याप्त है, उसकी तरफ जो आसक्त हो गया वह लहरों में आसक्त नहीं वह तो महासागर में आसक्त है, जो व्यक्तियों में आसक्त नहीं, वह व्यक्ति के भीतर छिपा अव्यक्ति में आसक्त है।
आसक्त मन वाला हो, जिसमें हम आकर्षित हो रहे हैं चाहे हम कहें आसक्ति चाहे कहें आकर्षित चाहे कहें प्रेम या भक्ति इनमें कोई अतंर नहीं, कहने का भाव है कि परमात्मा की तरफ खिंचा जा रहा है वह परमात्मा में आसक्तमना कहा जाता है।
भगवान कहते हैं मुझमें आसक्त मन वाला, मेरे में आश्रित होकर योग का अभ्यास करता हुआ, यानि समबुद्धि (समता) योग का अभ्यास यानि जब भी मन संसार के विषय में जाये तब वहाँ से बार-बार हटा कर योग में स्थिर रहना होता है।
भगवान कहते हैं योग का अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूप अर्थात कम्पलिटली यानि सम्पूर्णता, को निसंदेह जिस प्रकार जानेगा उसको सुन।