सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।
अर्थ सुहृद्, मित्र, शत्रु , उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु प्रवृति वालों में और पापाचारियों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य निष्पक्ष रहता है और वो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ माना जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 9
जो माँ की तरह ही, पर ममता रहित (मोह त्याग) होकर बिना किसी कारण के सबका हित चाहने वाला व सबका हित करने के स्वभाव वाला होता है, उसको ‘सुहृद्’ (हितेषी) कहते हैं और जो उपकार के बदले उपकार करने वाला होता है उसको ‘मित्र’ कहते हैं।
कोई दो व्यक्ति आपस में वाद विवाद कर रहे हैं उनको देखकर भी जो स्थिर रहता है किसी का पक्षपात नहीं करता और अपनी तरफ से कुछ नहीं करता वह ‘उदासीन’ कहलाता है। किन्तु दोनों की लड़ाई मिट जाये और दोनों का हित हो जाए। ऐसा प्रयास करने वाला ‘मध्यस्थ’ कहलाता है। एक तो बन्धु (सम्बन्धी) दूसरा बन्धु नहीं है। पर दोनों के साथ बर्ताव करने में उसके मन में कोई विषभाव नहीं होता। जैसे उसके पुत्र ने किसी का बुरा कर दिया या किसी और के पुत्र ने किसी का बुरा कर दिया। तो वह उनको उनके अपराध के अनुरूप समान दण्ड देगा। ऐसे ही उसके अपने पुत्र ने या किसी और के पुत्र ने अच्छा काम किया है। तो उनको पुरस्कार देने में भी उसके मन में पक्षपात नहीं होता। योगारूढ हो जाने पर मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण और सुहृाद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, साधु तथा सभी व्यक्तियों में भी उसकी समबुद्धि रहती है। कारण कि उसको एक परम प्रभु के सिवाय कुछ नहीं इस संसार में ऐसा बोध हो गया है।