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ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। 
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।
अर्थ वे योगी जो ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण है व कुट की तरह निर्विकार है और अपनी आत्मा में संतुष्ट, स्थिर, इंद्रियों को जीतने वाले उनके लिए सम्पूर्ण भूमि, पत्थर और सोना एक सामान होता है वे योगी "युक्त" कहलाते है। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 8 जिसका अन्तःकरण अर्थात मन, बुद्धि, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सबके जोड़ को अन्तःकरण कहते है। इसको समझने का आसान तरीका है। आप इसको मन समझें यह सब मन की ही वृतियां है। जिसका मन, ज्ञान$विज्ञान यानि तत्वज्ञान से तृप्त है। उसकी स्थिति विकार रहित है (निर्विकार, परफेक्ट) जिसकी इन्द्रियां जीती हुई है। मन को जीतने से इन्द्रियां अपने आप शांत हो जाती है और उसके लिए मिट्टी, पत्थर, सोना समान है। अर्थात धन के आने जाने से बनने बिगड़ने से उसको हर्ष शोक नहीं होता। यही उसका सम रहना है। उसके लिए जैसे पत्थर है, वैसे ही सोना है, जैसे सोना है, वैसे ही मिट्टी का ढेला है और जैसे मिट्टी का ढेला है, वैसे ही सोना है। वह कूट (अहरन) एक लोहे का पिण्ड होता है। जिस पर लोहा, सोना, चांदी आदि अनेक रूपों में गड़े जाते हैं। पर वह कूट एकरूप ही रहता है। ऐसे ही योगी के सामने तरह-तरह की परिस्थितियां आती है पर वह कूट की तरह ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। जो अहरन की तरह स्थित रहते हैं वह योगी युक्त है (योगारूढ) अर्थात भगवत प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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