प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।
अर्थ अनेक जन्मो से संचित किये हुए पुण्य कर्मो के साथ जो योगी निष्ठापूर्वक यत्न करता है तब वे समस्त पापों से मुक्त होकर निश्चय ही परम गति को प्राप्त होता है व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 45
एक होता है अभ्यास करना कि मैं भगवत मार्ग पर चल रहा हूँ लेकिन कभी-कभी संसार भोग की इच्छा करूं या यूं ही लोगों को दिखाने के लिए कभी-कभी ध्यान लगा लिया। लेकिन अपने भीतर से त्याग नहीं हो रहा भोगों का तो बाहर से कितने ही त्याग करके लोगों की वाहवाही में पड़े रहो वह प्रयास मुक्ति का नहीं है। मुक्ति के लिए जो अभ्यास किया जाता है वह प्रयत्नपूर्वक होता है। उसमें योगी निश्चय करके पथ पर चलता है। निश्चय का मतलब एक बार ज्ञान की प्राप्ति हो गई तो फिर संसार का कोई मोह भोग विचलित नहीं कर सकता। फिर तो संसार के भोगों की इच्छा को अभ्यास करके विलीन कर देता है और संसार से वैराग्य को प्राप्त हो जाता है। ऐसे निश्चय करके प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी पिछले जन्मों के योग के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों को विलीन कर देता है।
हो सकता है आपको पिछली बार मृत्यु पर मुक्ति मिलनी थी और आप अन्त में विचलित हो गये थे माया में, उसी योग के संस्कार से शायद आप आज गीता पढ़ रहे हो उसी योग को आप दोबारा प्राप्त कर रहे हो। आपमें योग का बल लोगों से कई गुणा ज्यादा हो सकता है। पिछले अनेक जन्मों में किये हुए योग के संस्कार बल से पीछे के अनेक जन्मों में किये पापों को विलीन (साफ) करके फिर तुम योग में निश्चय करके लगे रहो तुम इस जन्म में परम गति को प्राप्त हो जाओगे।