श्री भगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृतश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृतश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।
अर्थ श्री भगवान ने कहा, "हे पृथानन्दन! परमात्मा प्राप्ति के पथ पे चलने वाले साधक का न तो यहां और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी व्यक्ति दुर्गति में नहीं जाता व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 40
जो परमात्मा में श्रद्धा रखने वाला है वह ध्यान योग में भी विश्वास करता है लेकिन मृत्यु के समय विचलित हो जाता है। बस इतना संयम ना रहने से, बाकी ईश्वर में सम्पूर्ण श्रद्धा है उस पुरूष का ना तो इस लोक में नाश होता है (जो भगवद मार्ग पर चल रहे हैं उनका पृथ्वी पर भी नाश नहीं होता शरीर के मारे जाने पर भी उसके नाम की कीर्ति अमरता बढ़ती जाती है समय के हिसाब से) ना ही परलोक में नाश होता। क्योंकि हे प्यारे! भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ प्रेम से बोल कर अर्जुन को प्यारे कहा है, कारण कि अर्जुन परमात्मा के मार्ग पर चलने वालों के नष्ट होने पर शंका करते हैं। तब कृष्ण इस बात पर प्रेम से परमात्मा के भाव उत्पन्न कर रहे हैं। भगवान की बात पर शंका होने से कृष्ण को अर्जुन पर प्यार आ गया तब हे प्यारे कहा है। अपनी आत्मा के उद्धार के लिए सर्वहित के मार्ग पर चलने वाला कोई भी साधक दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि उसने मार्ग भगवत प्राप्ति का चुना है। संसार की आसक्तियों का नहीं, आत्मा उद्धार के लिए कर्म करने से, जीते जी भी शांति है और मृत्यु के बाद भी शांति है। समसाधक की मृत्यु के बाद भी अमरता रहती है।
भगवान कृष्ण अर्जुन को दो मनुष्यों का उदाहरण देकर इस अज्ञान को दूर करते हैं। जैसे एक तो श्रद्धा रखने वाला है, मन से संयमी नहीं और दूसरा कर्मयोगी जो अपने जीवन को भगवत मार्ग पर लगाकर समसाधना के अभ्यास से संसार की आसक्ति से वैराग्य को प्राप्त हो गया है। लेकिन मृत्यु के समय यह दोनों ही योग (समता) से विचलित हो गये। भगवान इन दोनों की मृत्यु के बाद कौन सा मार्ग किसको मिलेगा इनका ज्ञान अर्जुन को समझाते हैं अगले चार श्लोकों में।